मनोरमा एक भूल से सचेत हो कर जब तक उसे सुधारने में लगती है, तब तक उस की दूसरी भूल उसे अपनी मनुष्यता पर ही संदेह दिलाने लगती है. प्रतिदिन प्रतिक्षण भूल की अविच्छिन्न श्रृंखला मानव जीवन को जकड़े हुए है, यह उस ने कभी हृदयंगम नहीं किया.
भ्रम को उस ने शत्रु के रूप में देखा. वह उस से प्रति पद शंकित और संदिग्ध रहने लगी. उस की स्वाभाविक सरलता, जो बनावटी भ्रम उत्पन्न कर दिया करती थी, और उस के अस्तित्व में सुंदरता पालिश कर दिया करती थी, अब उस से बिछुड़ने लगी. वह एक बनावटी रूप और आवभगत को अपना आभरण समझने लगी.
मोहन, एक हृदयहीन युवक, उसे दिल्ली से ब्याह लाया था. उस की स्वाभाविकता पर अपने आतंक से क्रूर शासन कर के उसे आत्मचिंताशून्य पति गत प्राण बनाने की उत्कट अभिलाषा से हृदयहीन कल से चलतीफिरती हुई पुतली बना डाला और वह इसी में अपनी विजय और पौरुष की पराकाष्ठा समझने लगा था.
धीरेधीरे अब मनोरमा में अपना निज का कुछ नहीं रहा. वह उसे एक प्रकार से भूल सी गई थी. दिल्ली के समीप का यमुना तट का वह गांव, जिस में वह पली थी, बढ़ी थी, अब उसे कुछ विस्मृत सा हो चला था. वह ब्याह करने के बाद द्विरागमन के । अवसर पर जब से अपनी ससुराल आई थी, वह एक अद्भुत दृश्य था.
मनुष्य समाज में पुरुषों के लिए वह कोई बड़ी बात न थी, किंतु जब उन्हें घर छोड़ कर किसी काम से परदेश जाना पड़ता है, तभी उन को उस कथा के अधम अंश का आभास सूचित होता है. वह सेवा और स्नेहवृत्तिवाली स्त्रियां ही कर सकती हैं. जहां अपना कोई नहीं है, जिस से कभी की जानपहचान नहीं, जिस स्थान पर केवल वधू दर्शन का कुतूहल मात्र उस की अभ्यर्थना करने वाला है, वहां वह रोते और सिसकते किस साहस से आई और किसी को अपने रूप से, किसी को विनय से, किसी को स्नेह से उस ने वश में करना आरंभ किया. उसे सफलता भी मिली.
जिस तरह एक महाउद्योगी किसी भारी अनुसंधान के लिए अपने घर से अलग हो कर अपने सहारे अपना साधन बनाता है, व कथा सरित्सागर के साहसिक लोग वैताल या विद्याधरत्व की सिद्धि के असंभवनीय साहस का परिचय देते हैं, वह इन प्रतिदिन साहसकारिणी मनुष्य जाति की किशोरियों के सामने क्या हैं, जिन की बुद्धि और अवस्था कुछ भी इस के अनुकूल नहीं है.
हिंदू शास्त्रानुसार शूद्र स्त्री मनोरमा ने आश्चर्यपूर्वक ससुराल में द्वितीय जन्म ग्रहण कर लिया. उसे द्विजन्मा कहने में कोई बाधा नहीं है.
मेला देख कर मोहन लौटा. उस की अनुराग लता, उस की प्रगल्भा प्रेयसी ने उस का साथ नहीं दिया. संभवतः वह किसी विशेष आकर्षक पुरुष के साथ सहयोग कर के चली गई. मेला फीका हो गया. नदी के पुल पर एक पत्थर पर वह बैठ गया.
अंधेरी रात धीरेधीरे गंभीर होती जा रही थी. कोलाहल, जनरव और रसीली ताने विरल हो चलीं. ज्योज्यों एकांत होने लगा, मोहन की आतुरता बढ़ने लगी. नदी तट की शरद रजनी में एकांत, किसी की अपेक्षा करने लगा. उस का हृदय चंचल हो चला. मोहन ने सोचा, इस समय क्या करें? विनोदी हृदय उत्सुक हुआ. वह चाहे जो हो, किसी संगति को इस समय आवश्यक समझने लगा. प्यार न करने पर भी मनोरमा का ही ध्यान आया. समस्या हल होते देख कर वह घर की ओर चल पड़ा.
मनोरमा का त्योहार अभी बाकी थी. नगर भर में एक नीरव अवसाद हो गया था; किंतु मनोरमा के हृदय में कोलाहल हो रहा था. ऐसे त्योहार के दिन भी वह मोहन को न खिला सकी. लैंप के मंद प्रकाश में खिड़की के जंगले के पास वह बैठी रही. विचारने को कुछ भी उस के पास न था. केवल. स्वामी की आशा में दास के समान वह उत्कंठित बैठी थी.
दरवाजा खटका. वह उठी, चतुरा दासी से भी अच्छी तरह उस ने स्वामी की अभ्यर्थना, सेवा, आदर और सत्कार करने में अपने को लगा दिया. मोहन चुपचाप अपने ग्रासों के साथ वाग्युद्ध और दंतघर्षण करने लगा. मनोरमा ने भूल कर भी यह न पूछा कि तुम इतनी देर कहां थे? क्यों नहीं आए? न वह रूठी, न वह ऐंठी, गुरुमान की कौन कहे, लघुमान का छींटा नहीं.
मोहन को यह और असहाय हो गया. उस ने समझा कि हम इस योग्य भी नहीं रहे कि कोई हम से यह पूछे, “तुम कहां इतनी देर मरते थे?” पत्नी का अपमान उसे और यंत्रणा देने लगा. वह भोजन करतेकरते अकस्मात रुक गया. मनोरमा ने पूछा, “क्या दूध ले आऊं, अब और कुछ नहीं लीजिएगा?”
साधारण प्रश्न था. किंतु मोहन को प्रतीत हुआ कि यह तो अतिथि की सी अभ्यर्थना है, गृहस्थ की अपने घर की सी नहीं. वह चट बोल उठा, “नहीं, आज दूध न लूंगा.”
किंतु मनोरमा तो तब तक दूध का कटोरा ले कर सामने आ गई, बोली, “थोड़ा सा लीजिए, अभी गरम है.”
मोहन बारबार सोचता था कि कोई ऐसी बात निकले जिस में मुझे कुछ करना पड़े और मनोरमा मानिनी बने, मैं उसे मनाऊं; किंतु मनोरमा में वह मिट्टी ही नहीं रही. मनोरमा तो कल की पुतली हो गई थी.
मोहन ने, ‘दूध अभी गरम है’, इसी में से देर होने का व्यंग्य निकाल लिया और कहा, “हां, आज मेला देखने चला गया था, इसी में देर हुई.”
किंतु वहां कैफियत तो कोई लेता न था, देने के लिए प्रस्तुत अवश्य था. मनोरमा ने कहा, “नहीं, अभी देर तो नहीं हुई. आध घंटा हुआ होगा कि दूध उतारा गया है.”
मोहन हताश हो गया. चुपचाप पलंग पर जा लेटा. मनोरमा ने उधर ध्यान भी नहीं दिया. वह चतुरता से गृहस्थी की सारी वस्तुओं को समेटने लगी.
थोड़ी देर में इस से निबट कर वह अपनी भूल समझ गई. चट पान लगाने बैठ गई.
मोहन ने यह देख कर कहा, “नहीं, मैं पान इस समय न खाऊंगा.”
मनोरमा ने भयभीत स्वर से कहा, “बिखरी हुई चीजें इकट्ठी न कर लेती, बिल्लीचूहे उसे खराब कर देते. थोड़ी देर हुई है, क्षमा कीजिए. दो पान तो अवश्य खा लीजिए.”
बाध्य हो कर मोहन को दो पान खाना पड़ा. अब मनोरमा पैर दबाने बैठी. वेश्या से तिरस्कृत मोहन घबरा उठा. वह इस सेवा से कब छुट्टी पाए? इस सहयोग से क्या बस चले. उस ने विचारा कि मनोरमा को मैं ने ही तो ऐसा बनाना चाहा था. अब वह ऐसी हुई, तो मुझे अब विरक्ति क्यों है? इस के चरित्र का यह अंश क्यों नहीं रुचता-किसी ने उस के कान में धीरे से कहा, “तुम तो अपनी स्त्री को अपनी दासी बनाना चाहते थे, जो वास्तव में तुम्हारी अंतरात्मा को ईप्सित ( मंजूर या चाहा हुआ) नहीं था. तुम्हारी कुप्रवृत्तियों की वह उत्तेजना थी कि वह तुम्हारी चिरसंगिनी न हो कर दासी के समान आज्ञाकारिणी मात्र रहे. वही हुआ. अब क्यों झखते (झींकते ) हो!”
अकस्मात मोहन उठ बैठा. मोहन और मनोरमा एकदूसरे के पैर पकड़े खड़े हुए थे.