विजयादशमी का त्योहार समीप है. बालक लोग नित्य रामलीला होने से आनंद में मग्न हैं.
हाथ में धनुष और तीर लिए हुए एक छोटा सा बालक रामचंद्र बनने की तैयारी में लगा हुआ है. चौदह वर्ष का बालक बहुत ही सरल और सुंदर है.
खेलते खेलते बालक को भोजन की याद आई. फिर कहां का राम बनना और कहां की रामलीला. चट धनुष फेंक कर दौड़ता हुआ माता के पास जा पहुंचा और उस ममता मोहमयी माता के गले से लिपट कर-मां! खाने को दे, मां? खाने को दे-कहता हुआ जननी के चित्त को आनंदित करने लगा.
जननी बालक का मचलना देख कर प्रसन्न हो रही थी और थोड़ी देर तक बैठी रह कर और भी मचलना देखना चाहती थी. उस के यहां एक पड़ोसिन बैठी थी अतएव वह एकाएक उठ कर बालक को भोजन देने में असमर्थ थी. सहज ही असंतुष्ट हो जाने वाली पड़ोस की स्त्रियों का सहज क्रोधमय स्वभाव किसी से छिपा न होगा.
यदि वह तत्काल उठ कर चली जाती, तो पड़ोसिन क्रुद्ध होती. अतः वह उठ कर बालक को भोजन देने में आनाकानी करने लगी. बालक का मचलना और भी बढ़ चला. धीरेधीरे वह क्रोधित हो गया, दौड़ कर अपनी कमान उठा लाया; तीर चढ़ा कर पड़ोसिन को लक्ष्य किया और कहा-तू यहां से जा, नहीं तो मैं मारता हूं.’
दोनों स्त्रियां केवल हंस कर उस को मना करती रहीं. अकस्मात वह तीर बालक के हाथ से छूट पड़ा और पड़ोसिन की गरदन में कुछ धंस गया! अब क्या था, वह अर्जुन और अश्वत्थामा का पाशुपतास्त्र हो गया. बालक की मां बहुत घबरा गई, उस ने अपने हाथ से तीर निकाला, उस के रक्त को धोया, बहुत कुछ ढांढस दिया. किंतु घायल स्त्री का चिल्लाना कराहना सहज में थमने वाला नहीं था.
बालक की मां विधवा थी, कोई उस का रक्षक न था. जब उस का पति जीता था, तब तक उस का संसार अच्छी तरह चलता था. अब जो कुछ पूंजी बच रही थी, उसी में वह अपना समय बिताती थी. ज्योंत्यों कर के उस ने चिर संरक्षित धन में से पचीस रुपए उस घायल स्त्री को दिए.
वह स्त्री किसी से यह बात न कहने का वादा कर के अपने घर गई. परंतु बालक का पता नहीं, वह डर के मारे घर से निकल किसी ओर भाग गया.
माता ने समझा कि पुत्र कहीं डर से छिपा होगा, शाम तक आ जाएगा धीरेधीरे संध्या पर संध्या, सप्ताह पर सप्ताह, मास पर मास, बीतने लगे; परंतु बालक का कहीं . पता नहीं. शोक से माता का हृदय जर्जर हो गया, वह चारपाई से लग गई. चारपाई ने . भी उस का ऐसा अनुराग देख कर उसे अपना लिया, और फिर वह उस पर से न उठ सकी. बालक को अब कौन पूछने वाला है.
कलकत्ता महानगरी (अब कोलकाता) के विशाल भवनों तथा राजमार्गों को
आश्चर्य से देखता हुआ एक बालक एक सुसज्जित भवन के सामने खड़ा है. महीनों कष्ट झेलता, राह चलता, थकता हुआ बालक यहां पहुंचा है. र बालक थोड़ी देर तक यही सोचता था कि अब मैं क्या करूं, किस से अपने कष्ट की कथा कहूं. इतने में वहां धोती कमीज पहने हुए एक सभ्य बंगाली महाशय का आगमन हुआ. __उस बालक की चौड़ी हड्डी, सुडौल बदन और सुंदर चेहरा देख कर बंगाली महाशय रुक गए और उसे एक विदेशी समझ कर पूछने लगे.
“तुम्हारा मकान कहां है?”
“ब… में.”
“तुम यहां कैसे आए?”
“भाग कर.” “नौकरी करोगे?”
“अच्छा, हमारे साथ चलो.”
बालक ने सोचा कि सिवा काम के और क्या करना है, तो फिर इन के साथ ही उचित है. कहा-अच्छा, चलिए.
बंगाली महाशय उस बालक को घुमातेफिराते एक मकान के द्वार पर पहुंचे. दरबान ने उठ कर सलाम किया. वह बालक सहित एक कमरे में पहुंचे, जहां एक नवयुवक बैठा हुआ कुछ लिख रहा था, सामने बहुत से कागज इधरउधर बिखरे पड़े थे.
युवक ने बालक को देख कर पूछा-बाबूजी, यह बालक कौन है?
“यह नौकरी करेगा, तुम को एक आदमी की जरूरत थी ही, सो इस को हम लिवा लाए हैं, अपने साथ रखो.”
बाबूजी यह कह कर घर के दूसरे भाग में चले गए थे.
युवक के कहने पर बालक भी अचकचाता हुआ बैठ गया. उन में इस तरह बातें होने लगीं
युवक-क्यों जी, तुम्हारा नाम क्या है?
बालक (कुछ सोच कर)-मदन.
युवक-नाम तो बड़ा अच्छा है. अच्छा, कहो, तुम क्या खाओगे? रसोई बनाना जानते हो.
बालक-रसोई बनाना तो नहीं जानते. हां, कच्चीपक्की जैसी हो, बना कर खा लेते हैं, किंतु…
“अच्छा, संकोच करने की कोई जरूरत नहीं है.” इतना कह कर युवक ने पुकारा-कोई है?
एक नौकर दौड़ कर आया-हुजूर, क्या हुक्म है? युवक ने कहा-इन को भोजन करने के लिए ले जाओ.
भोजन के उपरांत बालक युवक के पास आया. युवक ने एक घर दिखा कर कहा कि उस सामने की कोठरी में सोओ और उसे अपने रहने का स्थान समझो.
युवक की आज्ञा के अनुसार बालक उस कोठरी में गया, देखा तो एक साधारण सी चौकी पड़ी है; एक घड़े में जल, लोटा और गिलास भी रखा हुआ है. वह चुपचाप चौकी पर लेट गया.
लेटने पर उसे बहुत सी बातें याद आने लगीं, एकएक कर के उसे भावना के जाल में फंसाने लगी. बाल्यावस्था के साथी, उन के साथ खेलकूद, रामरावण की लड़ाई, फिर उस विजयादशमी के दिन की घटना, पड़ोसिन के अंग में तीर का धंस जाना, माता की व्याकुलता, और मार्ग के कष्ट को सोचतेसोचते उस भयातुर बालक की विचित्र दशा हो गई!
मनुष्य की मिमियाई ( में में करना) निकालने वाली द्वीप निवासिनी जातियों की भयानक कहानियां, जिन्हें उस ने बचपन में माता की गोद में पड़ेपड़े सुना था, उसे और भी डराने लगी. अकस्मात उस के मस्तिष्क को उद्वेग से भर देने वाली यह बात भी समा गई कि ये लोग तो मुझे नौकर बनाने के लिए अपने यहां लाए थे, फिर इतने आराम से क्यों रखा है? हो न हो, वही टापूवाली बात है. बस, फिर कहां की नींद और कहां का सुख, करवटें बदलने लगा! मन में यही सोचता था कि यहां से किसी तरह भाग चलो.
परंतु निद्रा भी कैसी प्यारी वस्तु है! घोर दुःख के समय भी मनुष्य को यही सुख देती है. सब बातों से व्याकुल होने पर भी वह कुछ देर के लिए सो गया.
मदन उसी घर में रहने लगा. अब उसे उतनी घबराहट नहीं मालूम होती. अब वह निर्भय सा हो गया है. किंतु अभी तक यह बात कभीकभी उसे उधेड़बुन में लगा देती है कि ये लोग मुझ से इतना अच्छा बर्ताव क्यों करते हैं और क्यों इतना सुख देते हैं. पर इन सब बातों को वह उस समय भूल जाता है, जब ‘मृणालिनी’ उस की रसोई बनवाने लगती है-देखो, रोटी जलती है, उसे उलट दो, दाल भी चला दो इत्यादि बातें जब मृणालिनी के कोमल कंठ से वीणा की झंकार के समान सुनाई देती हैं, तब वह अपना दुःख-माता का सोच-सब भूल जाता है. .
मदन है तो अबोध, किंतु संयुक्त प्रांतवासी होने के कारण सपृश्यास्पृश्य (छूत अछूत) का उसे बहुत ही ध्यान रहता है. वह दूसरे का बनाया भोजन नहीं करता. अतएव मृणालिनी आ कर उसे बताती है और भोजन के समय हवा भी करती है.
मृणालिनी गृहस्वामी की कन्या है. वह देवबाला सी जान पड़ती है. बड़ीबड़ी आंखें, उज्ज्वल कपोल, मनोहर अंगभंगी, गुल्फविलंबित केशकलाप उसे और भी सुंदरी बनने में सहायता दे रहे हैं. अवस्था तेरह वर्ष की है; किंतु वह बहुत गंभीर है.
नित्य साथ होने से दोनों में अपूर्व भाव का उदय हुआ है. बालक का मुख जब आग की आंच से लाल तथा आंखें धुएं के कारण आंसुओं से भर जाती हैं, तब बालिका आंखों में आंसू भर कर, रोषपूर्वक पंखी फेंक कर कहती है-लो जी, इस से काम लो, क्यों व्यर्थ परिश्रम करते हो? इतने दिन तुम्हें रसोई बनाते हुए, मगर बनाना न आया!
तब मदन आंच लगने के सारे दुःख को भूल जाता है-तब उस की तृष्णा और बढ़ जाती है। भोजन रहने पर भी भूख सताती है. और सताया जा कर भी वह हंसने लगता है. मन ही मन सोचता, मृणालिनी! तुम बंग महिला क्यों हुई?
मदन के मन में यह बात क्यों उत्पन्न हुई? दोनों सुंदर थे, दोनों ही किशोर थे, दोनों संसार से अनभिज्ञ थे, दोनों के हृदय में रक्त था-उच्छवास था-आवेग था, विकास था, दोनों के हृदयसिंधु में किसी अपूर्व चंद्र का मधुर उज्ज्वल प्रकाश पड़ता था, दोनों के हृदय कानन में नंदन पारिजात खिला था!
जिस परिवार में बालक मदन पलता था, उस के मालिक हैं अमरनाथ बनर्जी. आप के नवयुवक पुत्र का नाम है किशोरनाथ बनर्जी, कन्या का नाम मृणालिनी और गृहणी का नाम हीरामणि है. बंबई (अब मुंबई) और कलकत्ता, (अब कोलकाता) दोनों स्थानों में, आप की दुकानें थीं, जिन में बाहरी चीजों का क्रयविक्रय होता था; विशेष काम मोती के बनिज का था.
आप का आफिस सीलोन (अब श्रीलंका) में था; वहां से मोती की खरीद होती थी. आप की कुछ जमीन भी वहां थी. उस से आप की बड़ी आय थी. आप प्रायः अपनी बंबई की दुकान में और आप का परिवार कलकत्ते में रहता था. धन अपार था, किसी चीज की कमी न थी. तो भी आप एक प्रकार से चिंतित थे!
संसार में कौन चिंताग्रस्त नहीं है? पशुपक्षी, कीटपतंग, चेतन और अचेतन, सभी को किसी प्रकार की चिंता है. जो योगी हैं, जिन्होंने सब कुछ त्याग दिया है संसार जिन के वास्ते असार है, उन्होंने भी स्वीकार किया है. यदि वे आत्मचिंतन न करें, तो उन्हें योगी कौन कहेगा?
किंतु बनर्जी महाशय की चिंता का कारण क्या है? सो पतिपत्नी की इस बातचीत से ही विदित हो जाएगा. अमरनाथ-किशोर तो क्वारा ही रहना चाहता है. अभी तक उस की शादी कहीं पक्की नहीं हुई.
हीरामणि-सीलोन में आप के व्यापार करने तथा रहने से समाज आप को दूसरी ही दृष्टि से देख रहा है.
अमरनाथ-ऐसे समाज की मुझे कुछ परवाह नहीं है. मैं तो केवल लड़की और लड़के का ब्याह अपनी जाति में करना चाहता था. क्या टापुओं में जा कर लोग पहले बनिज नहीं करते थे? मैं ने कोई अन्य धर्म तो ग्रहण नहीं किया, फिर यह व्यर्थ का आडंबर क्यों है? और, यदि कोई खानपान का दोष दे, तो क्या यहां पर तिलक लगा कर पूजा करने वाले लोगों से होटल बचा हुआ है?
हीरामणि-फिर क्या कीजिएगा? समाज तो इस समय केवल उन्हीं बंगलाभगतों को परम धार्मिक समझता है!
अमरनाथ-तो फिर अब मैं ऐसे समाज को दूर ही से हाथ जोड़ता हूं. हीरामणि-तो क्या ये लड़की लड़के क्वारे ही रहेंगे?
अमरनाथ-नहीं, अब हमारी यह इच्छा है कि तुम सब को ले कर उसी जगह चलें. यहां कई वर्ष रहते भी हुए किंतु कार्य सिद्ध होने की कुछ भी आशा नहीं हैं, तो फिर अपना व्यापार क्यों नष्ट होने दें? इसलिए, अब तुम सब को वहीं चलना होगा. न होगा तो ब्राह्म हो जाएंगे, किंतु यह उपेक्षा अब सही नहीं जाती.
मदन, मृणालिनी के संगम से बहुत ही प्रसन्न है. सरला मृणालिनी भी प्रफुल्लित है. किशोरनाथ भी उसे बहुत ही प्यार करता है, प्रायः उसी को साथ ले कर हवा खाने के लिए जाता है. दोनों में बहुत ही सौहार्द है. मदन भी बाहर किशोरनाथ के साथ और घर आने पर मृणालिनी की प्रेममयी वाणी से आप्यायित (प्रसन्न) रहता है.
मदन का समय सुख से बीतने लगा. किंतु बनर्जी महाशय के सपरिवार बाहर जाने की बातों ने एक बार उस के हृदय को उद्वेगपूर्ण बना दिया. यह सोचने लगा कि मेरा क्या परिणाम होगा, क्या मुझे भी चलने के लिए आज्ञा देंगे? और यदि ये चलने के लिए कहेंगे, तो मैं क्या करूंगा? इन के साथ जाना ठीक होगा या नहीं?
इन सब बातों को वह सोचता ही था कि इतने में किशोरनाथ ने अकस्मात आ कर उसे चौंका दिया.
उस ने खड़े हो कर पूछा-कहिए, आप लोग किस सोच विचार में पड़े हुए हैं? कहां जाने का विचार है?
“क्यों, क्या तुम न चलोगे?”
“कहां?”
“जहां हम लोग जाएं.”
“वही तो पूछता हूं कि आप लोग कहां जाएंगे?”
“सीलोन.”
“तो मुझ से भी आप वहां चलने के लिए कहते हैं?”
“इस में तुम्हारी हानि ही क्या है?”
(यज्ञोपवीत दिखा कर ) “इस की ओर भी तो ध्यान कीजिए!”
“तो क्या समुद्र यात्रा तुम नहीं कर सकते?”
“सुना है कि वहां जाने से धर्म नष्ट हो जाता है!”
“क्यों? जिस तरह तुम यहां भोजन बनाते हो, उसी तरह वहां भी बनाना.”
“जहाज पर भी चढ़ना होगा!”
“उस में हर्ज ही क्या है? लोग गंगासागर और जगन्नाथ जी जाते समय जहाज पर नहीं चढ़ते?”
मदन अब निरुत्तर हुआ; किंतु उत्तर सोचने लगा. इतने ही में उधर से मृणालिनी
आती हुई दिखाई पड़ी. मृणालिनी को देखते ही उस के विचार रूपी मोतियों को प्रेम हंस ने चुग लिया और उस से उस की बुद्धि और भ्रमपूर्ण जान पड़ने लगी.
मृणालिनी ने पूछा- क्यों मदन, तुम बाबा के साथ न चलोगे?
जिस तरह वीणा की झंकार से मस्त हो कर मृग स्थिर हो जाता है, अथवा मनोहर वंशी की तान से झूमने लगता है, वैसे ही मृणालिनी के मधुर स्वर में मुग्ध मदन ने कह दिया-क्यों न चलूंगा.
सारा संसार पलपल में, नवीन सा प्रतीत होता है और इस से उस विश्वयंत्र को बनाने वाले स्वतंत्र की बड़ी भारी निपुणता का पता लगता है। क्योंकि नवीनता की यदि रचना न होती, तो मानव समाज को यह संसार और ही तरह का भासित होता. फिर उसे किसी वस्तु की चाह न होती; इतनी तरह से व्यावहारिक पदार्थों की कुछ भी आवश्यकता न होती.
समाज, राज्य और धर्म के विशेष परिवर्तन रूपी पट में इस की मनोहर मूर्ति और भी सलोनी देख पड़ती है. मनुष्य बहुप्रेमी क्यों हो जाता है? मानवों की प्रवृत्ति क्यों दिनरात बदला करती है. नगर निवासियों को पहाड़ी घाटियां सौंदर्यमयी प्रतीत होती हैं? विदेश पर्यटन में क्यों मनोरंजन होता है? मनुष्य क्यों उत्साहित होता है? इत्यादि प्रश्नों के उत्तर में केवल यही कहा जा सकता है कि नवीनता की प्रेरणा!
नवीनता वास्तव में ऐसी ही वस्तु है कि जिस से मदन को भारत से सीलोन तक पहुंच जाना कुछ कष्ट कर न लगा.
विशाल सागर के वक्षस्थल पर दानव राज की तरह वह जहाज अपनी चाल और उस की शक्ति दिखा रहा है. उसे देख कर मदन को द्रोपदी और पांडवों को लादे हुए घटोत्कच का ध्यान आता था.
उत्ताल तरंगों की कल्लोल माला अपना अनुपम दृश्य दिखा रही है. चारों ओर जल ही जल है, चंद्रमा अपने पिता की गोद में क्रीड़ा करता हुआ आनंद दे रहा है. अनंत सागर में अनंत आकाशमंडल के असंख्य नक्षत्र अपने प्रतिबिंब दिखा रहे हैं.
मदन तीन चार बरस में युवक हो गया. उस की भावुकता बढ़ गई थी. वह समुद्र का एक सुंदर दृश्य देख रहा था. अकस्मात एक प्रकाश दिखाई देने लगा. वह उसी को देखने लगा.
जब मनोहर अरुण का प्रकाश नील जल को भी आरक्तिम (लाल) बनाने की चेष्टा करने लगा. चंचल तरंगों की लहरियां सूर्य की किरणों से क्रीड़ा करने लगीं. मदन उस अनंत समुद्र को देख कर डरा नहीं किंतु अपने प्रेममय हृदय का एक जोड़ा देख कर और भी प्रसन्न हुआ वह निर्भीक हृदय से उन लोगों के साथ सीलोन पहुंचा.
अमरनाथ के विशाल भवन में रहने से मदन को बड़ी प्रसन्नता है. मृणालिनी और मदन उसी प्रकार से मिलतेजुलते हैं, जैसे कलकत्ते में मिलतेजुलते थे. लवण महासमुद्र की महिमा दोनों ही को मनोहर जान पड़ती है. प्रशांत महासागर के तट की संध्या दोनों के नेत्रों को ध्यान में लगा देती है. डूबते हुए सूर्य देव देवतुल्य हृदयों को संसार की गति दिखलाते हैं, अपने राग की आभा उन प्रभातमय हृदयों पर डालते हैं, दोनों ही सागर तट पर खड़े सिंधु की तरंग भंगियों को देखते हैं। फिर भी दोनों ही दोनों की मनोहर अंगभंगियों में भूले हुए हैं.
महासमुद्र के तट पर बहुत समय तक खड़े हो कर मृणालिनी और मदन उस अनंत का सौंदर्य देखते थे. अकस्मात बैंड का सुरीला राग सुनाई दिया, जो कि सिंधु गर्जन को भी भेद कर निकलता था.
मदन, मृणालिनी दोनों एकाग्रचित्त हो उस ओजस्विनी कविवाणी को जातीय संगीत में सुनने लगे. किंतु वहां कुछ दिखाई न दिया. चकित हो कर वे सुन रहे थे. वायु भी उत्ताल तरंगों को हिला कर उन को डराता हुआ उसी की प्रतिध्वनि करता था. मंत्रमुग्ध के समान सिंधु भी अपनी तरंगों के घातप्रतिघात पर चिढ़ कर उन्हीं शब्दों को दुहराता है. समुद्र को स्वीकार करते देख कर अनंत आकाश भी उसी की प्रतिध्वनि करता है.
धीरेधीरे विशाल सागर के हृदय को फाड़ता हुआ एक जंगी जहाज दिखाई पड़ा. मदन और मृणालिनी, दोनों ही, स्थिर दृष्टि से उस की ओर देखते रहे. जहाज अपनी जगह पर ठहरा और इधर पोर्ट संरक्षक ने उस पर सैनिकों के उतरने के लिए यथोचित प्रबंध किया.
समुद्र की गंभीरता, संध्या की निस्तब्धता और बैंड के सुरीले राग ने दोनों के हृदय को सम्मोहित कर लिया, और वे इन्हीं सब बातों की चर्चा करने लग गए.
मदन ने कहा-मृणालिनी, यह बाजा कैसा सुरीला है.
मृणालिनी का ध्यान टूटा. सहसा उस के मुख से निकला-तुम्हारे कल कंठ से अधिक नहीं है.
इसी तरह दिन बीतने लगे. मदन को कुछ काम नहीं करना पड़ता था. जब कभी उस का जी चाहता, तब वह महासागर के तट पर जा कर प्रकृति की सुषमा को निरखता और उसी में आनंदित होता था. वह प्रायः गोता लगा कर मोती निकालने वालों की ओर देखा करता और मन ही मन उन की प्रशंसा किया करता था.
मदन का मालिक भी उस को कभी कोई काम करने के लिए आज्ञा नहीं देता था. वह उसे बैठा देख कर मृणालिनी के साथ घूमने के लिए जाने की आज्ञा देता था. उस का स्वभाव ही ऐसा सरल था कि सभी सहवासी उस से प्रसन्न रहते थे, वह भी उन से खूब हिलमिल कर रहता था.
संसार भी बड़ा प्रपंचमय मंत्र है. वह अपनी मनोहरता पर आप ही मुग्ध रहता है.
एक एकांत कमरे में बैठे हुए मृणालिनी और मदन ताश खेल रहे हैं। दोनों जी जान से जीतने की कोशिश कर रहे हैं.
इतने में ही सहसा अमरनाथ बाबू उस कोठरी में आए. उन के मुख मंडल पर क्रोध झलकता था. वह आते ही बोले-क्यों रे दृष्ट! तू बालिका को फसला रहा है?
मदन तो सुन कर सन्नाटे में रह गया. उस ने नम्रता के साथ खड़े हो कर पूछा-क्यों पिता, मैं ने क्या किया है?
अमरनाथ-अभी पूछता ही है! तू इस लड़की को बहका कर अपने साथ ले कर दूसरी जगह भागना चाहता है?
मदन-बाबूजी, यह आप क्या कह रहे हैं? मुझ पर आप इतना अविश्वास कर रहे हैं? किसी दुष्ट ने आप से झूठी बात कही है.
अमरनाथ-अच्छा, तुम यहां से चलो और अब से तुम दूसरी कोठरी में रहा करो. मृणालिनी को और तुम को अगर हम एक जगह देख पाएंगे तो समझ रखो-समुद्र के गर्भ में ही तुम को स्थान मिलेगा.
मदन अमरनाथ बाबू के पीछे चला. मृणालिनी मुरझा गई, मदन के ऊपर अपवाद लगाना उस के सुकुमार हृदय से सहा नहीं गया. वह नव कुसुमित पद दलित आश्रय विहीन माधवी लता के समान पृथ्वी पर गिर पड़ी और लोटलोट कर रोने लगी.
मृणालिनी ने दरवाजा भीतर से बंद कर लिया और वहीं लोटती हुई आंसुओं से हृदय की जलन को बुझाने लगी..
कई घंटे के बाद जब उस की मां ने जा कर किवाड़ खुलवाए, उस समय उस की रेशमी साड़ी का आंचल भीगा हुआ, उस का मुख सूखा हुआ और आंखें लाललाल हो आई थीं. वास्तव में वह मदन के लिए रोई थी. इसी से उस की यह दशा हो गई. सचमुच संसार बड़ा प्रपंचमय है.
दूसरे घर में रहने से मदन बहुत घबराने लगा. वह अपना मन बहलाने के लिए कभीकभी समुद्र तट पर बैठ कर गद्गद हो सूर्य भगवान का पश्चिम दिशा से मिलना देखा करता था; और जब तक वह अस्त न हो जाते थे, तब तक बराबर टकटकी लगाए देखता था. वह अपने चित्त में कल्पना की अनेक लहरें उठा कर समुद्र और अपने हृदय की तुलना भी किया करता था.
मदन का अब इस संसार में कोई नहीं है. माता भारत में जीती है या मर गई-यह भी बेचारे को नहीं मालूम! संसार की मनोहरता, आशा की भूमि, मदन के जीवन स्रोत का जल, मदन के हृदय कानन का अपूर्व पारिजात, मदन के हृदय सरोवर की मनोहर मृणालिनी भी अब उस से अलग कर दी गई है. जननी, जन्मभूमि, प्रिय, कोई भी तो मदन के पास नहीं है? इसी से उस का हृदय आलोड़ित होने लगा, और वह अनाथ बालक ईर्ष्या से भर कर अपने अपमान की ओर ध्यान देने लगा. उस को भलीभांति विश्वास हो गया कि इस परिवार के साथ रहना ठीक नहीं है. जब इन्होंने मेरा तिरस्कार किया, तो अब इन्हीं के आश्रित हो कर क्यों रहूं?
यह सोच कर उस ने अपने चित्त में कुछ निश्चय किया और कपड़े पहन कर समुद्र की ओर घूमने के लिए चल पड़ा. राह में अपनी उधेड़ बुन में चला जाता था कि किसी ने पीठ पर हाथ रखा. मदन ने पीछे देख कर कहा – आह, आप हैं किशोर बाबू?
किशोरनाथ ने हंस कर कहा-कहां बगदादी ऊंट की तरह भागे जाते हो?
“कहीं तो नहीं, यहीं समुद्र की ओर जा रहा हूं.” “समुद्र की ओर क्यों?”
“शरण मांगने के लिए.” यह बात मदन ने डबडबाई हुई आंखों से किशोर की ओर देख कर कही.
किशोर ने रूमाल से मदन के आंसू पोंछतेपोंछते कहा-मदन, हम जानते हैं कि उस दिन बाबू जी ने जो तिरस्कार किया था, उस से तुम को बहुत दुःख है. मगर सोचो तो, इस में दोष किस का है? यदि तुम उस रोज मृणालिनी को बहकाने का उद्योग न करते, तो बाबूजी तुम पर क्यों अप्रसन्न होते?
अब तो मदन से नहीं रहा गया. उस ने क्रोध से कहा-कौन दुष्ट उस देवबाला पर झूठा अपवाद लगाता है? और मैं ने उसे बहकाया है? इस बात का कौन साक्षी है? किशोर बाब! आप लोग मालिक हैं, जो चाहें सो कहिए. आप ने पालन किया है, इसलिए यदि आज्ञा दें तो मदन समुद्र में भी कूदने के लिए तैयार है, मगर अपवाद और अपमान से बचाए रहिए.
कहतेकहते मदन का मुख क्रोध से लाल हो आया, आंखों में आंसू भर आए, उस के आकार से उस समय दृढ़ प्रतिज्ञा झलकती थी.
किशोर ने कहा-इस बारे में विशेष हम कुछ नहीं जानते, केवल मां के मुख से सुना था कि जमादार ने बाबूजी से तुम्हारी निंदा की है और इसी वजह से वह तुम पर बिगड़े हैं.
मदन ने कहा-आप लोग अपनी बाबूगीरी में भूले रहते हैं और ये बेईमान आप का सब माल खाते हैं. मैं ने उस जमादार को मोती निकालने वालों के हाथ मोती बेचते देखा;
मैं ने पूछा-क्यों, तुम ने मोती कहां पाया? तब उस ने गिड़गिड़ा कर, पैर पकड़ कर मुझ से कहा-बाबूजी से न कहिएगा. मैं ने उसे डांट कर फिर ऐसा काम न करने के लिए कह कर छोड़ दिया, आप लोगों से नहीं कहा. इसी कारण वह ऐसी चाल चलता है और आप लोगों ने भी बिना सोचेसमझे उस की बात पर विश्वास कर लिया.
यों कहतेकहते मदन उठ खड़ा हो गया. किशोर ने उस का हाथ पकड़ कर बैठाया और आप भी बैठ कर कहने लगा-मदन, घबराओ मत, थोड़ी देर बैठ कर हमारी बात सुनो. हम उस को दंड देंगे और तुम्हारा अपवाद भी मिटवाएंगे. मगर हम एक बात जो कहते हैं, उसे ध्यान दे कर सुनो. मृणालिनी अब बालिका नहीं है, और तुम भी बालक नहीं हो. तुम्हारे, उस के लिए जैसे भाव हैं, सो भी हम से छिपे नहीं हैं. फिर ऐसी जगह पर हम तो यही चाहते हैं कि तुम्हारा और मृणालिनी का ब्याह हो जाए.
मदन ब्याह का नाम सुन कर चौंक पड़ा, और मन से सोचने लगा कि यह कैसी बात? कहां हम युक्तप्रांत निवासी अन्य जातीय, और कहां ये बंगाली ब्राह्मण, फिर ब्याह किस तरह हो सकता है. हो न हो, ये मुझे भुलावा देते हैं. क्या मैं इन के साथ अपना धर्म नष्ट करूंगा? क्या इसी कारण ये लोग मुझे इतना सुख देते हैं और खूब खुल कर मृणालिनी के साथ घूमनेफिरने और रहने देते थे? मृणालिनी को मैं जी से चाहता हूं, और जहां तक देखता हूं, मृणालिनी भी मुझ से कपट प्रेम नहीं करती. किंतु यह ब्याह नहीं हो सकता क्योंकि इस में धर्म और अधर्म दोनों का डर है. धर्म का निर्णय करने की मुझ में शक्ति नहीं है. मैं ने ऐसा ब्याह होते न देखा है और न सुना है, फिर कैसे यह ब्याह करूं?
इन्हीं बातों को सोचतेसोचते बहुत देर हो गई. तब मदन को यह सुन पड़ा कि ‘अच्छा, सोच कर हम से कहना’, तब वह चौंक पड़ा और देखा तो किशोरनाथ जा रहा है.
मदन ने किशोरनाथ के जाने पर कुछ विशेष ध्यान नहीं दिया और फिर अपने विचारों के सागर में मग्न हो गया.
फिर मृणालिनी का ध्यान आया, हृदय धड़कने लगा. मदन की चिंता शक्ति का वेग रुक गया और उस के मन में यही समाया कि ऐसे धर्म को मैं दूर ही से हाथ जोड़ता हूं! मृणालिनी. प्रेम प्रतिभा मृणालिनी-को मैं नहीं छोड़ सकता!
मदन इसी मंतव्य को स्थिर कर, समुद्र की ओर मुख कर, उस की गंभीरता निहारने लगा.
वहां पर कुछ धनी लोग पैसा फेंक कर उसे समुद्र से ले आने का तमाशा देख रहे थे. मदन ने सोचा कि प्रेमियों का जीवन ‘प्रेम’ है और सज्जनों का अमोघ धन ‘धर्म’ है. ये लोग अपने प्रेम जीवन की परवाह न कर धर्म धन को बटोरते हैं और फिर इन के पास जीवन और धन दोनों चीजें दिखाई पड़ती हैं. तो क्या मनुष्य इन का अनुकरण नहीं कर सकता? अवश्य कर सकता है.
प्रेम ऐसी तुच्छ वस्तु नहीं है कि धर्म को हटा कर उस स्थान पर आप बैठे. प्रेम महान है, प्रेम उदार है. प्रेमियों को भी वह उदार और महान बनाता है. प्रेम का मुख्य अर्थ है ‘आत्मत्याग’. तो क्या मृणालिनी से ब्याह कर लेना ही प्रेम में गिना जाएगा? नहीं नहीं, वह घोर स्वार्थ है. मृणालिनी को मैं जन्म भर प्रेम से अपने हृदय मंदिर में बिठा कर पूजूंगा, उस की सरल प्रतिमा को पंक में न लपेटूंगा. परंतु ये लोग जैसा बर्ताव करते हैं, उस से संभव है कि मेरे विचार पलट जाएं. इसलिए अब इन लोगों से दूर रहना ही उचित है.
मदन इन्हीं बातों को सोचता हुआ लौट आया, और जो अपना मासिक वेतन जमा किया था वह तथा कुछ कपड़े आदि आवश्यक सामान ले कर वहां से चला गया. जाते समय उस ने एक पत्र लिख कर वहीं छोड़ दिया.
जब बहुत देर तक लोगों ने मदन को नहीं देखा, तब चिंतित हुए. खोज करने से उन को मदन का पत्र मिला, जिसे किशोरनाथ ने पढ़ा और पढ़ कर उस का मर्म पिता को समझा दिया.
पत्र का भाव समझते ही उन की सब आशा निर्मूल हो गई. उन्होंने कहा-किशोर, देखो, हम ने सोचा था कि मृणालिनी किसी कुलीन हिंदू को समर्पित हो, परंतु वह नहीं हुआ. इतना व्यय और परिश्रम, जो मदन के लिए किया गया, सब व्यर्थ हुआ. अब वह कभी मृणालिनी से ब्याह नहीं करेगा, जैसा कि उस के पत्र से विदित होता
“आप के उस व्यवहार ने उसे और भड़का दिया. अब वह कभी ब्याह न करेगा.”
“मृणालिनी का क्या होगा?”
“जो उस के भाग्य में है!”
“क्या जाते समय मदन ने मृणालिनी से भेंट नहीं की?”
“पूछने से मालूम होगा.”
इतना कह कर किशोर मृणालिनी के पास गया. मदन उस से भी नहीं मिला था. किशोर ने आ कर पिता से सब हाल कह दिया.
अमरनाथ बहुत ही शोकग्रस्त हुए. बस, उसी दिन से उन की चिंता बढ़ने लगी. क्रमशः वह नित्य ही मद्य सेवन करने लगे. वह तो प्रायः अपनी चिंता दूर करने के लिए मद्य पान करते थे, किंतु उस का फल उलटा हुआ-उन की दशा और भी बुरी हो चली, यहां तक कि वह सब समय पान करने लगे, कामकाज देखनाभालना छोड़ दिया.
नवयुवक ‘किशोर’ बहुत चिंतित हुआ, किंतु वह धैर्य के साथ सांसारिक कष्ट सहने लगा.
मदन के चले जाने से मृणालिनी को बड़ा कष्ट हुआ. उसे यह बात और भी खटकती थी कि मदन जाते समय उस से क्यों नहीं मिला. वह यह नहीं समझती थी कि मदन यदि जाते समय उस से मिलता, तो जा नहीं सकता था.
मृणालिनी बहुत विरक्त हो गई. संसार उसे सूना दिखाई देने लगा. किंतु वह क्या करे? उसे अपनी मानसिक व्यथा सहनी ही पड़ी.
मदन ने अपने एक मित्र के यहां जा कर डेरा डाला. वह भी मोती का व्यापार करता था. बहुत सोचनेविचारने के उपरांत उस ने भी मोती का ही व्यापार करना निश्चित किया.
मदन नित्य संध्या के समय, मोती बाजार में जा, मछुए लोग जो अपने मेहनताने में मिली हुई मोतियों की सीपियां बेचते थे, उन को खरीदने लगा; क्योंकि इस में थोड़ी पूंजी से अच्छी तरह काम चल सकता था. ईश्वर की कृपा से उस को नित्य विशेष लाभ होने लगा.
संसार में मनुष्य की अवस्था सदा बदलती रहती है. वही मदन, जो तिरस्कार पा कर दासत्व छोड़ने पर लक्ष्य भ्रष्ट हो गया था, अब एक प्रसिद्ध व्यापारी बन गया.
मदन इस समय संपन्न हो गया. उस के यहां अच्छेअच्छे लोग मिलनेजुलने आने लगे. उस ने नदी के किनारे एक बहुत सुंदर बंगला बनवा लिया है, उस के चारों और सुंदर बगीचा भी है. व्यापारी लोग उत्सव के अवसरों पर उस को निमंत्रण देते हैं; वह भी अपने यहां कभी कभी उन लोगों को निमंत्रित करता है. संसार की दृष्टि में वह बहुत सुखी था, यहां तक कि बहुत लोग उस से डाह करने लगे. सचमुच संसार बड़ा आडंबर प्रिय था!
मन सब प्रकार से शारीरिक सुख भोग करता था; पर उस के चित्तपट पर किसी रमणी की मलिन छाया निरंतर अंकित रहती थी; जो उसे कभीकभी बहुत कष्ट पहुंचाती थी. प्रायः वह उसे विस्मृति के जल से धो डालना चाहता था. यद्यपि वह चित्र किसी साधारण कारीगर का अंकित किया हुआ नहीं था कि एक दम लुप्त हो जाए,
तथापि वह बराबर उसे मिटा डालने की ही चेष्टा करता था.
अकस्मात एक दिन जब सूर्य की किरणें सुवर्ण सी सु सुवर्ण आभा धारण किए हुए थीं, नदी का जल मौज में बह रहा था, उस समय मदन किनारे खड़ा हुआ स्थिर भाव से नदी की शोभा निहार रहा था. उस को वहां कई एक सुसज्जित जलयान देख पड़े. उस का चित्त न जाने क्यों उत्कंठित हुआ. अनुसंधान (खोजबीन) करने पर पता चला कि वहां वार्षिक जलविहार का उत्सव होता है, उसी में लोग जा रहे हैं.
मदन के चित्त में भी उत्सव देखने की आकांक्षा हुई. वह भी अपनी नाव पर चढ़ कर उसी ओर चला. कल्लोलिनी की कल्लोलों में हिलती हुई वह छोटी सी सुसज्जित तरी (नाव) चल दी.
मदन उस स्थान पर पहुंचा, जहां नावों का जमाव था. सैकड़ों बजरे और नौकाएं अपने नीले, पीले, हरे, लाल निशान उड़ाती हुई इधरउधर घूम रही हैं. उन पर बैठे मित्र लोग आपस में आमोदप्रमोद कर रहे हैं. कामिनियां अपने मणिमय अलंकारों की प्रभा से उस उत्सव को आलोकमय किए हुए हैं.
मदन भी अपनी नाव पर बैठा हुए एकटक इस उत्सव को देख रहा है. उस की आंखें जैसे किसी को खोज रही हैं. धीरेधीरे संध्या हो गई. क्रमशः एक, दो, तीन तारे दिखाई दिए. साथ ही, पूर्व की तरफ, ऊपर को उठते हुए गुब्बारे की तरह चंद्रबिंब दिखाई पड़ा. लोगों के नेत्रों में आनंद का उल्लास छा गया. इधर दीपक जल गए. मधुर संगीत, शून्य की निस्तब्धता में, और भी गूंजने लगा. रात के साथ ही आमोदप्रमोद की मात्रा बढ़ी परंतु मदन के हृदय में सन्नाटा छाया हुआ है. उत्सव के बाहर वह अपनी नौका को धीरेधीरे चला रहा है. अकस्मात कोलाहल सुनाई पड़ा. वह चौंक कर उधर देखने लगा. उसी समय कोई चारपांच हाथ दूर एक काली सी चीज दिखाई दी. अस्त हो रहे चंद्रमा का प्रकाश पड़ने से कुछ वस्त्र भी दिखाई देने लगा. वह बिना कुछ सोचेसमझे ही जल में कूद पड़ा और उसी वस्तु के साथ बह चला.
उषा की आभा पूर्व में दिखाई पड़ रही है. चंद्रमा की मलिन ज्योति तारागण को भी मलिन कर रही है.
तरंगों से शीतल दक्षिण पवन धीरेधीरे संसार को निद्रा से जगा रहा है. पक्षी भी कभीकभी बोल उठते हैं.
निर्जन नदी तट में एक नाव बंधी है, और बाहर एक सुकुमारी सुंदरी का शरीर अचेत अवस्था में पड़ा हुआ है. एक युवक सामने बैठा हुआ उसे होश में लाने का उद्योग कर रहा है. दक्षिण पवन भी उसे इस शुभ काम में बहुत सहायता दे रहा है.
सूर्य की पहली किरण का स्पर्श पाते ही सुंदरी के नेत्र कमल धीरेधीरे विकसित होने लगे. युवक ने ईश्वर को धन्यवाद दिया और झुक कर उस कामिनी से पूछा-मृणालिनी, अब कैसी हो?
मृणालिनी ने नेत्र खोल कर देखा. उस के मुख मंडल पर हर्ष के चिह्न दिखाई पड़े. उस ने कहा-प्यारे मदन, अब अच्छी हूं! प्रसिद्ध व्यापारी गिने जाते थे, और व्यापारी लोग जिन से सलाह लेने के लिए तरसते थे, वही अमरनाथ इस समय कैसी अवस्था में हैं! कोई उन से मिलने भी नहीं आता!
किशोरनाथ एक दिन अपने आफिस में बैठा कार्य देख रहा था. अकस्मात् मृणालिनी भी उसी स्थान पर आ गई और एक कुरसी खींच कर बैठ गई. उस ने किशोर से कहा-क्यों भैया, पिताजी की कैसी अवस्था है? कामकाज की भी दशा अच्छी नहीं है, तुम भी चिंता से व्याकुल रहते हो, यह क्या है?
किशोरनाथ-बहन, कुछ न पूछो, पिताजी की अवस्था तो तुम देख ही रही हो. कामकाज की अवस्था भी अत्यंत शोचनीय हो रही है. पचास लाख रुपए के लगभग बाजार का देना है; और आफिस का रुपया सब बाजार में फंस गया है, जो कि काम देखेभाले बिना पिताजी की अस्वस्थता के कारण दब सा गया है. इसी सोच में बैठा हुआ हूं कि ईश्वर क्या करेंगे!
मृणालिनी भयातुर हो गई. उस के नेत्रों से आंसुओं की धारा बहने लगी. किशोर उसे समझाने लगा; फिर बोला-केवल एक ईमानदार कर्मचारी अगर कामकाज की देखभाल किया करता, तो यह अवस्था न होती. आज यदि मदन होता, तो हम लोगों की यह दशा न होती.
मदन का नाम सुनते ही मृणालिनी कुछ विवर्ण हो गई और उस की आंखों में आंसू भर आए. इतने में दरबान ने आ कर कहा-सरकार, एक रजिस्ट्री चिट्ठी मृणालिनी देवी के नाम से आई है, डाकिया बाहर खड़ा है.
किशोर ने कहा-बुला लाओ.
किशोर ने यह रजिस्ट्री ले कर खोली. उस में एक पत्र और एक स्टांप का कागज था. देख कर किशोर ने मृणालिनी के आगे फेंक दिया. मृणालिनी ने फिर वह किशोर के हाथ में दे कर पढ़ने के लिए कहा. किशोर पढ़ने लगा
मृणालिनी! आज मैं तुम को पत्र लिख रहा हूं. आशा है कि तुम इसे ध्यान दे कर पढ़ोगी. मैं एक अनजाने स्थान का रहने वाला कंगाल के भेष में तुम से मिला और तुम्हारे परिवार में पालित हुआ. तुम्हारे पिता ने मुझे आश्रय दिया, और मैं सुख से तुम्हारा मुख देख कर दिन बिताने लगा. पर दैव को यह भी ठीक न जंचा! अच्छा, जैसी उस की इच्छा! पर मैं तुम्हारे परिवार को सदा स्नेह की दृष्टि से देखता हूं. बाबू अमरनाथ के कहनेसुनने का मुझे कुछ ध्यान भी नहीं है, मैं उसे आशीर्वाद समझता हूं. मेरे चित्त में उन का तनिक भी ध्यान नहीं है, पर केवल पश्चात्ताप यह है कि मैं उन से बिना कहेसुने चला आया. अच्छा, इस के लिए उन से क्षमा मांग लेना और भाई किशोरनाथ से भी मेरा यथोचित अभिवादन कह देना. अब कुछ आवश्यक बातें मैं लिखता हूं, उन्हें ध्यान से पढ़ो. जहां तक संभव है, उन के करने में तुम आगापीछा न करोगी-यह मुझे विश्वास है. मुझे तुम्हारे परिवार की दशा अच्छी तरह विदित है, मैं उसे लिख कर तुम्हारा दुःख नहीं बढ़ाना चाहता. सुनो यह एक ‘विल’ है जिस में मैं ने अपनी सब सीलोन की संपत्ति तुम्हारे नाम लिख दी है. वह तुम्हारी ही है, उसे लेने में तुम को कुछ संकोच न करना चाहिए. वह सब तुम्हारे ही रुपए का लाभ है. जो धन मैं वेतन में पाता था, वही मूल कारण है. अस्तु, यह मूलधन, लाभ और ब्याज सहित तुम को लौटा दिया जाता है. इसे अवश्य स्वीकार करना, और करो या न करो, अब सिवा तुम्हारे इस का स्वामी कौन है? क्योंकि मैं भारतवर्ष से जिस रूप में आया था, उसी रूप में लौट रहा हूं. मैं इस पत्र को लिख कर तब भेज रहा हूं, जब घर से निकल कर जहाज पर रवाना हो चुका हूं. अब तुम से भेंट भी नहीं हो सकती. तुम यदि आओ भी, तो उस समय मैं जहाज पर होऊंगा. तुम से मेरी केवल यही प्रार्थना है कि तुम मुझे भूल जाना.
मदन यह पत्र पढ़ते ही मृणालिनी की ओर किशोरनाथ की अवस्था दूसरी ही हो गई. मृणालिनी ने कातर स्वर से कहा-भैया, क्या समुद्र तट तक चल सकते हो?
किशोरनाथ ने खड़े हो कर कहा-अवश्य!
बस, तरंत ही एक गाडी पर सवार हो कर दोनों समद्र तट की ओर चले. ज्यों ही वे पहुंचे, त्यों ही जहाज तट छोड़ चुका था. उस समय व्याकुल हो कर मृणालिनी की आंखें किसी को खोज रही थीं. किंतु अधिक खोज नहीं करनी पड़ी.
किशोर और मृणालिनी दोनों ने देखा कि गेरुए रंग का कपड़ा पहिने हुए एक व्यक्ति दोनों हाथ जोड़े हुए जहाज पर खड़ा है, और जहाज शीघ्रता के साथ समुद्र के बीच में चला जा रहा है!
मृणालिनी ने देखा कि बीच में अगाध समुद्र है!