प्रसाद

मधुप अभी किसलय शय्या पर, मकरंद मदिरा पान किए सो गए थे. सुंदरी के मुख मंडल पर प्रस्वेद बिंदु के समान फूलों के ओस अभी सूखने न पाए थे. अरुण की स्वर्ण किरणों ने उन्हें गरमी न पहुंचाई थी. फूल कुछ खिल चुके थे. परंतु थे अर्ध विकसित. ऐसे सौरभपूर्ण सुमन सवेरे ही जा कर उपवन से चुन लिए थे.

पर्णपुट का उन्हें पवित्र वेष्ठन दे कर अंचल में छिपाए हुए सरला देव मंदिर में पहुंची. घंटा अपने इंभ का घोर नाद कर रहा था. चंदन और केसर की चहलपहल हो रही थी. अगरु धूप गंध से तोरण और प्राचीर परिपूर्ण था. स्थानस्थान पर स्वर्ण शृंगार और रजत के नैवेद्य पात्र, बड़ीबड़ी आरतियां, फूल चंगेर सजाए हुए धरे थे. देव प्रतिमा रत्न आभूषणों से लदी हुई थी.

सरला ने भीड़ में घुस कर उस का दर्शन किया और देखा कि वहां मल्लिका की माला, परिजात के हार, मालती की मालिका और भी अनेक प्रकार के सुरभित सुमन देव प्रतिमा के पदतल में विकीर्ण हैं. शतदल लोट रहे हैं और कला की अभिव्यक्तिपूर्ण देव प्रतिमा के ओष्ठाधार में रत्न की ज्योति के साथ बिजली सी मुस्क्यान रेखा खेल रही थी, जैसे उन फूलों का उपहास कर रही हो. सरला को यही विदित हुआ कि फूलों की यहां गिनती नहीं, पूछ नहीं. सरला अपने पाणि पल्लव में पर्णपुट लिए कोने में खड़ी हो गई.

भक्तवृंद अपने नैवेद्य, उपहार देवता को अर्पण करते थे, रत्न खंड, स्वर्णमुद्राएं देवता के चरणों में गिरती थीं. पुजारी भक्तों को फलफूलों का प्रसाद देते थे. वे प्रसन्न हो कर जाते थे. सरला से न रहा गया. उस ने अपने अर्धविकसित फूलों का पर्णपुट खोला भी नहीं.

बड़ी लज्जा से, जिस में कोई देखे नहीं, ज्यों का त्यों, फेंक दिया; परंतु वह गिरा ठीक देवता के चरणों पर. पुजारी ने उस की आंख बचा कर रख लिया. सरला फिर कोने में जा कर खड़ी हो गई. देर तक दर्शकों का आना; दर्शन करना, घंटे का बजाना, फूलों का रौंद, चंदन, केसर की कीच और रत्न स्वर्ण की क्रीड़ा होती रही. सरला चुपचाप खड़ी देखती रही. .

शयन आरती का समय हुआ. दर्शक बाहर हो गए. रत्न जटित स्वर्ण आरती ले कर पुजारी ने आरती आरंभ करने के पहले देव प्रतिमा के पास के फूल हटाए. रत्न आभूषण उतारे, उपहार के स्वर्ण रत्न बटोरे. मूर्ति नग्न और विरल शृंगार थी.

अकस्मात पुजारी का ध्यान उस पर्ण पुट की ओर गया. उस ने खोल कर उन थोड़े से अर्ध विकसित कसमों को, जो अवहेलना से सूखा ही चाहते थे, भगवान के नग्न शरीर पर यथावकाश सजा दिया. कई जन्म का अतृप्त शिल्पी ही जैसे पुजारी हो कर आया है. मूर्ति की पूर्णता का उद्योग कर रहा है. शिल्पी की शेष कला की पूर्ति हो गई. पुजारी विशेष भावापन्न हो कर आरती करने लगा. सरला को देख कर भी किसी ने न देखा, न पूछा कि ‘तुम इस समय मंदिर में क्यों हो?’

आरती हो रही थी, बाहर का घंटा बज रहा था. सरला मन में सोच रही थी, मैं दोचार फूलपत्ते ही ले कर आई. परंतु चढ़ाने का, अर्पण करने का हृदय में गौरव था. दान का, सो भी किसे! भगवान को! मन में उत्साह था.

परंतु हाय! ‘प्रसाद’ की आशा ने, शुभकामना के बदले की लिप्सा ने मुझे छोटा बना कर अभी तक रोक रखा. सब दर्शक चले गए, मैं खड़ी हूं, किस लिए. अपने उन्हीं अर्पण किए हुए दोचार फूल लौटा लेने के लिए, “तो चलूं.”

अकस्मात आरती बंद हुई. सरला ने जाने के लिए आशा का सत्सर्ग कर के एक बार देव प्रतिमा की ओर देखा कि उस के फूल भगवान के अंग पर सुशोभित हैं. वह ठिठक गई. पुजारी ने सहसा घूम कर देखा और कहा, “अरे तुम! अभी यहीं हो तुम्हें प्रसाद नहीं मिला, लो.”

जान में या अनजान में, पुजारी ने भगवान की एकावली सरला के नत गले में डाल दी! प्रतिमा प्रसन्न हो कर हंस पड़ी.

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