पाप की पराजय

घने हरे कानन के हृदय में पहाड़ी नदी झिरझिर करती बह रही है. गांव से दूर, बंदूक लिए हुए शिकारी के वेश में, घनश्याम दूर बैठा है. एक निरीह शशक (खरगोश)मार कर प्रसन्नता से पतली पतली लकड़ियों में उसका जलना देखता हुआ प्रकृति की कमनीयता के साथ वह बड़ा अन्याय कर रहा है. किंतु उसे दायित्वविहीन विचारपति की तरह बेपरवाही है.

जंगली जीवन का आज उसे बड़ा अभिमान है. अपनी सफलता पर आप ही मुग्ध हो कर मानव समाज की शैशवावस्था की पुनरावृत्ति करता हुआ निर्दय घनश्याम उस अधजले जंतु से उदर भरने लगा. तृप्त होने पर वन की सुधि आई. चकित हो कर देखने लगा कि यह कैसा रमणीय देश है.

थोड़ी देर में तंद्रा ने उसे दबा दिया. वह कोमल वृत्ति विलीन हो गई. स्वप्न ने उसे फिर उद्वेलित किया. निर्मल जल धारा से धुले हुए पत्तों का घना कानन, स्थानस्थान पर कुसुमित कुंज, आंतरिक और स्वाभाविक आलोक में उन कुंजों की कोमल छाया, हृदय स्पर्शकारी शीतल पवन का संचार, अस्फुट आलेख्य के समान उस के सामने स्फुरित होने लगे.

घनश्याम को सुदूर से मधुर झंकार सी सुनाई पड़ने लगी. उस ने अपने को व्याकुल पाया. देखा तो एक अद्भुत दृश्य! इंद्रनील की पुतली फूलों से सजी हुई झरने के उस पार पहाड़ी से उतर कर बैठी है. उस के सहज कुंचित केश से वन्य कुरुवक्र कलियां कूदकूद कर जल लहरियों से क्रीड़ा कर रही हैं. घनश्याम को वह वनदेवी सी प्रतीत हुई. यद्यपि उस का रंग कंचन के समान नहीं, फिर भी गठन सांचे में ढला हुआ

आकर्ण विस्तृत क्षेत्र नहीं, तो भी उन में एक स्वाभाविक राग है. यह कवि की कल्पना सी कोई स्वर्गीया आकृति नहीं, प्रत्युत एक भिल्लनी है. तब भी इस में सौंदर्य नहीं है, यह कोई साहस के साथ नहीं कह सकता.

घनश्याम ने तंद्रा से चौंक कर उस सहज सौंदर्य को देखा और विषम समस्या में पड़ कर सोचने लगा, क्या सौंदर्य उपासना की ही वस्तु है, उपभोग की नहीं? इस प्रश्न को हल करने के लिए उस ने हंटिंग कोट के पाकेट का सहारा लिया. क्लातिहारिणी का पान करने पर उस की आंखों पर रंगीन चश्मा चढ़ गया. उस की तंद्रा का यह काल्पनिक स्वर्ग धीरेधीरे विलास मंदिर में परिणत होने लगा. घनश्याम ने देखा कि अद्भुत रूप, यौवन की चरम सीमा और स्वास्थ्य का मनोहर संस्करण रंग बदल कर पाप ही सामने आया.

पाप का यह रूप, जब वह वासना को फांस कर अपनी ओर मिला चुका है, बड़ा कोमल अथवा कठोर एवं भयानक होता है और तब पाप का मुख कितना सुंदर होता है! सुंदर ही नहीं, आकर्षक भी, वह भी कितना प्रलोभन पूर्ण और कितना शक्तिशाली, जो अनुभव में नहीं आ सकता. उस में विजय का दर्द भरा रहता है. वह अपने एक मृदु मुसकान से सुदृढ़ विवेक की अलहेलना करता है.

घनश्याम ने धोखा खाया और क्षण भर में वह सरल सुषमा विलुप्त हो कर उद्दीपन का अभिनय करने लगी. यौवन ने भी उस समय काम से मित्रता कर ली. पाप की सेना और उस का आक्रमण प्रबल हो चला. विचलित होते ही घनश्याम को पराजित होना पड़ा. वह आवेश में बांहें फैला कर झरने को पार करने लगा.

नील की पुतली ने उस ओर देखा भी नहीं. युवक की मांसल पीन भुजाएं उसे आलिंगन किया ही चाहती थीं कि ऊपर पहाड़ी पर से शब्द सुनाई पड़ा, “क्यों नीला, कब तक यहीं बैठी रहेगी? मुझे देर हो रही है. चल, घर चलें.”

घनश्याम ने सिर उठा कर देखा तो ज्योतिर्मयी दिव्य मूर्ति रमणी सुलभ पवित्रता का ज्वलंत प्रमाण, केवल यौवन से ही नहीं, बल्कि कला की दृष्टि से भी, दृष्टिगत हुई. किंतु आत्मगौरव का दुर्ग किसी की सहज पाप वासना को वहां फटकने नहीं देता था.

शिकारी घनश्याम लज्जित तो हुआ ही, पर वह भयभीत भी था. पुण्य प्रतिमा के सामने पाप की पराजय हुई. नीला ने घबरा कर कहा, “रानी जी, आती हूं. जरा मैं थक गई थी.”

रानी और नीला दोनों चली गईं.

अब की बार घनश्याम ने फिर सोचने का प्रयास किया, क्या सौंदर्य उपभोग के लिए नहीं, केवल उपासना के लिए है? खिन्न हो कर वह घर लौटा. किंतु बार बार वह घटना याद आती रही. घनश्याम कई बार उस झरने पर क्षमा मांगने गया किंतु वहां उसे कोई न मिला.

जो कठोर सत्य है, जो प्रत्यक्ष है, जिस की प्रचंड लपट अभी नदी में प्रतिभाषित हो रही है, जिस की गरमी इस शीतल रात्रि में भी अंक में अनुभूत हो रही है, उसे असत्य या उसे कल्पना कह कर उड़ा देने के लिए घनश्याम का मन हठ कर रहा है.

थोड़ी देर पहले जब (नदी पर से मुक्त आकाश में एक टुकड़ा बादल का उठ आया था) चिता लग चुकी थी, घनश्याम आग लगाने को उपस्थित था. उस की स्त्री चिता पर अतीत निद्रा में निमग्न थी. निठुर हिंदू शास्त्र की कठोर आज्ञा से जब वह विद्रोह करने लगा था, उसी समय घनश्याम को सांत्वना हुई, उस ने अचानक मूर्खता से अग्नि लगा दी. उसे ध्यान हुआ कि बादल बरस कर निर्दय चिता को बुझा देंगे, उसे जलने न देंगे. किंतु व्यर्थ? चिता ठंडी हो कर और भी ठहरठहर कर सलगने लगी, क्षण भर में जल कर राख न होने पाई.

घनश्याम ने हृदय में सोचा कि यदि हम मुसलमान या ईसाई होते तो? आह! फूलों से मिली हुई मुलायम मिट्टी में इसे सुला देते, सुंदर समाधि बनाते, आजीवन प्रति संध्या को दीप जलाते, फूल चढ़ाते, कविता पढ़ते, रोते, आंसू बहाते, किसी तरह दिन बीत जाते. किंतु यहां कुछ भी नहीं. हत्यारा समाज! कठोर धर्म! कुत्सित व्यवस्था! इन से क्या आशा? चिता जलने लगी.

श्मशान से लौटते समय घनश्याम ने साथियों को छोड़ कर जंगल की ओर पैर बढ़ाया. जहां प्रायः शिकार खेलने जाया करता, वहीं जा कर बैठ गया. आज वह बहुत दिनों पर इधर आया है. कुछ ही दूरी पर देखा कि साखू के वृक्ष की छाया में एक सुकुमार शरीर पड़ा है. सिरहाने तकिया का काम, हाथ दे रहा है.

घनश्याम ने अभी कड़ी चोट खाई है. करुण कमल का उस के आर्द्र मानस में विकास हो गया था. उस ने समीप जा कर देखा कि वह रमणी और कोई नहीं है, वही रानी है, जिसे उस ने बहुत दिन हुए एक अनोखे ढंग में देखा था. ..

घनश्याम की आहट पाते ही रानी उठ बैठी. घनश्याम ने पूछा, “आप कौन हैं? क्यों यहां पड़ी हैं?”

रानी-“मैं केतकी वन की रानी हूं.”

“तब ऐसे क्यों?”

“समय की प्रतीक्षा में पड़ी हूँ”

“कैसा समय?”

“आप से क्या काम? क्या शिकार खेलने आए हैं?”

“नहीं देवी! आज स्वयं शिकार हो गया हूं.”

“तब तो आप शीघ्र ही शहर की ओर पलटेंगे. क्या किसी भिल्लनी के नयन बाण लगे हैं? किंतु नहीं, मैं भूल कर रही हूं. उन बेचारियों को क्षुधा ज्वाला ने जला रखा है. ओह, वह गढ़े में धंसी हुई आंखें अब किसी को आकर्षित करने का सामर्थ्य नहीं रखतीं! हे भगवान, मैं किस लिए पहाड़ी से उतर कर आई हूं.”

“देवी! आप का अभिप्राय क्या है, मैं समझ न सका. क्या ऊपर आकाल है, दर्भिक्ष है?”

“नहीं नहीं, ईश्वर का प्रकोप है, पवित्रता का अभिशाप है, करुणा की बीभत्स मूर्ति का दर्शन है.”

“तब आप की क्या इच्छा है.”

“मैं वहां की रानी हूं. मेरे वस्त्र आभूषण भंडार में जो कुछ था, सब बेच कर तीन महीने किसी प्रकार उन्हें खिला सकी, अब मेरे पास केवल इस वस्त्र को छोड़ कर और कुछ नहीं रहा कि विक्रय कर के एक भी क्षुधित पेट की ज्वाला बुझाती, इसलिए…”

“क्या?”

“शहर चलूंगी. सुना है कि वहां रूप का भी दाम मिलता है. यदि कुछ मिल सके…” . “तब?”

“तो इसे भी बेच दूंगी. अनाथ बालकों को इस से कुछ तो सहायता पहुंच सकेगी. क्यों, क्या मेरा रूप बिकने के योग्य नहीं है?”

युवक घनश्याम इस का उत्तर देने में असमर्थ था. कुछ दिन पहले वह अपना सर्वस्व दे कर भी ऐसा रूप क्रय करने को प्रस्तुत हो जाता. आज वह अपनी स्त्री के वियोग में बड़ा ही सीधा, धार्मिक, निरीह एवं परोपकारी हो गया था. आर्त मुमुक्षु (मोक्ष पाने की इच्छा करने वाले) की तरह उसे न जाने किस वस्तु की खोज थी.

घनश्याम ने कहा, “मैं क्या उत्तर दूं?”.

“क्यों? क्या दाम न लगेगा? हां, तुम भी आज किस वेश में हो? क्या सोचते हो? बोलते क्यों नहीं?”

“मेरी स्त्री का शरीरांत हो गया.”

“तब तो अच्छा हुआ, तुम नगर के धनी हो. तुम्हें तो रूप की आवश्यकता होती होगी. क्या इसे क्रय करोगे?”  घनश्याम ने हाथ जोड़ कर सिर नीचा कर लिया.

तब उस रानी ने कहा, “उस दिन तो एक भिल्लनी के रूप पर मरते थे. क्यों, आज क्या हुआ?”

“देवी, मेरा साहस नहीं है-वह पाप का वेग था.”

“छिः पाप के लिए साहस था और पुण्य के लिए नहीं?”

घनश्याम रो पड़ा और बोला, “क्षमा कीजिएगा. पुण्य किस प्रकार संपादित होता है, मुझे नहीं मालूम. किंतु इसे पुण्य कहने में..”

“संकोच होता है. क्यों?”

इसी समय दोतीन बालक, चारपांच स्त्रियां और छःसात भील अनाहार- क्लिष्ट शीर्ण कलेवर पवन से हिलतेडुलते रानी के सामने आ कर खड़े हो गए..

रानी ने कहा, “क्यों अब पाप की परिभाषा करोगे?”

घनश्याम ने कांप कर कहा, “नहीं, प्रायश्चित करूंगा, उस दिन के पाप का प्रायश्चित.”

युवक घनश्याम वेग से उठ खड़ा हुआ, बोला, “बहन, तुम ने मेरे जीवन को अवलंब (सहारा) दिया है. मैं निरुद्देश्य हो रहा था, कर्त्तव्य नहीं सूझ पड़ता था. आप को रूप विक्रय न करना पड़ेगा. देवी! मैं संध्या तक आ जाऊंगा.”.

“संध्या तक?”

“और भी पहले.”

बालक रोने लगे, “रानी मां, अब नहीं रहा जाता.” घनश्याम से भी नहीं रहा गया, वह भागा.

घनश्याम की पापभूमि, देखतेदेखते गाड़ी और छकड़ों से भर गई, बाजार लग गया, रानी के प्रबंध में घनश्याम ने वहीं पर अकाल पीड़ितों की सेवा आरंभ कर दी.

जो घटना उसे बारबार स्मरण होती थी, उसी का यह प्रायश्चित था. घनश्याम ने उसी भिल्लनी को प्रधान प्रबंध करने वाली देख कर आश्चर्य किया. उसे न जाने क्यों हर्ष और उत्साह दोनों हुए.

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