पवित्र नगर

मैं अपने यौवन काल में सुना करता था कि एक ऐसा शहर है, जिसके निवासी ईश्वरीय पुस्तकों के अनुसार धार्मिक जीवन व्यतीत करते हैं।

मैंने कहा, “मैं इस शहर की जरूर खोज करूंगा और उससे कल्याण साधन करूंगा।”

यह शहर बहुत दूर था। मैंने अपने सफर के लिए बहुत-सा सामान जमा किया। चालीस दिन के बाद उस शहर को देख लिया और इकतालीसवें दिन उस शहर में दाखिल हुआ।

मुझे यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि नगर के सभी निवासियों के केवल एक हाथ और एक आंख थी।

मैंने यह भी अनुभव किया कि वे स्वयं भी आश्चर्य में डूबे हुए हैं। मेरे दो हाथों और दो आंखों ने उन्हें आश्चर्य में डाल दिया था। इसलिए जब वे मेरे सम्बंध में आपस में बातचीत कर रहे थे तो मैंने एक से पूछा, “क्या यह वही पवित्र नगर है, जिसका प्रत्येक निवासी धार्मिक जीवन व्यतीत करता है?”

उन्होंने उत्तर दिया, “हां, यह वही नगर है।”

मैंने पूछा, “तुम्हारी यह दशा क्योंकर हुई? तुम्हारी दाहिनी आंख और दाहिने हाथ क्या हुए?”

वह मेरी बात से बहुत प्रभावित हुआ और बोला, “आओ और देखो।”

वे मुझे एक देवालय में ले गए, जो शहर के बीच में स्थित था। मैंने उस देवालय के चौक में हाथों और आंखों का एक बड़ा ढेर लगा देखा। वे सब गल-सड़ रहे थे। यह देखकर मैंने कहा, “अफसोस, किसी निर्दयी विजेता ने तम्हारे साथ यह अत्याचार किया। इतना सुनकर उन्होंने आपस में धीरे-धीरे बातचीत करनी शुरू की और एक वृद्ध आदमी ने आगे बढ़कर मुझसे कहा, “यह हमारा काम है। किसी विजेता ने हमारी आंख और हाथ नहीं काटे। ईश्वर ने हमें अपनी बुराइयों पर विजय प्रदान की है।”

यह कहकर वह मुझे एक ऊंचे स्थान पर ले गया। बाकी सब लोग हमारे पीछे थे। वहां पहुंचकर मन्दिर के ऊपर एक लेख दिखाया, जिसके शब्द थे “यदि तुम्हारी दाहिनी आंख तुम्हें ठोकर खिलाए तो उसे बाहर निकाल फेंको; क्योंकि सारे शरीर के नरक में पड़े रहने की अपेक्षा एक अंग का नष्ट होना अच्छा है, और यदि तुम्हारा दाहिना हाथ तुम्हें बुराई करने के लिए विवश करे तो उसे भी काटकर फेंक दो, ताकि तुम्हारा केवल एक अंग नष्ट हो जाए और सारा शरीर नरक में न पड़ने पाए।” यह लेख पढ़कर मुझे सारा रहस्य मालूम हो गया। मैंने मुंह फेरकर सब लोगों को सम्बोधित किया, “क्या तुममें कोई पुरुष या स्त्री ऐसा नहीं, जिसके दो हाथ और दो आंखें हो?”

सबने उत्तर दिया, “नहीं, कोई नहीं। यहां बालकों के, जो कम उम्र होने के कारण इस लेख को पढ़ने और इसकी आज्ञाओं के अनुसार कार्य करने में असमर्थ हैं, वही बचे हैं, कोई मनुष्य नहीं।”

जब हम देवालय से बाहर आए तो मैं तुरन्त इस पवित्र नगर से भाग निकला, क्योंकि मैं बच्चा नहीं था और उस शिलालेख को अच्छी तरह पढ सकता था।

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