पत्थर की पुकार

नवल और विमल दोनों बात करते हुए टहल रहे थे.  विमल ने कहा

“साहित्य सेवा भी एक व्यसन है.”

“नहीं मित्र! यह तो विश्व भर की एक मौन सेवा समिति का सदस्य होना है.”

“अच्छा तो फिर बताओ, तुम को क्या भला लगता है? कैसा साहित्य रुचता है?

“अतीत और करुणा का जो अंश साहित्य में हो, वह मेरे हृदय को आकर्षित करता है.”

नवल की गंभीर हंसी कुछ तरल हो गई. उन्होंने कहा, “इस से विशेष और हम भारतीयों के पास धरा क्या है! स्तुत्य अतीत की घोषणा और वर्तमान की करुणा, इसी का गान हमें आता है. बस, यह भी एक भांगगांजे की तरह नशा है.” विमल का हृदय स्तब्ध हो गया.

चिर प्रसन्न वदन मित्र को अपनी भावना पर इतना कठोर आघात करते हुए कभी भी उस ने नहीं देखा था. वह कुछ विरक्त हो गया. मित्र ने कहा, “कहां चलोगे?” उस ने कहा, “चलो, मैं थोड़ा घूम कर गंगा तट पर मिलूंगा.” नवल भी एक ओर चला गया.

चिंता में मग्न विमल एक ओर चला. नगर के एक सूने मुहल्ले की ओर जा निकला. एक टूटी चारपाई अपने फूटे झिलंगे में लिपटी पड़ी है. उसी के बगल में दीन कुटी फूस से ढंकी हुई, अपना दरिद्र मुख भिक्षा के लिए खोले हुए बैठी है. दो एक ढांकी और हथौड़े, पानी की प्याली, कुंची, दो काले शिलाखंड परिचारक की तरह उस दीन कुटी को घेरे पड़े हैं. किसी को न देख कर एक शिलाखंड पर न जाने किस के कहने से विमल बैठ गया. वह चुपचाप था. विदित हुआ कि दूसरा पत्थर कुछ धीरे धीरे कह रहा है. वह सुनने लगा 

“मैं अपने सुखद शैल में संलग्न था. शिल्पी! तूने मुझे क्यों ला पटका? यहां तो मानव की हिंसा का गर्जन मेरे कठोर वक्षस्थल का भेदन कर रहा है. मैं तेरे प्रलोभन में पड़ कर यहां चला आया था, कुछ तेरे बाहुबल से नहीं, क्योंकि मेरी प्रबल कामना थी कि मैं एक सुंदर मूर्ति में परिणत हो जाऊं. उस के लिए अपने वक्षःस्थल को क्षतविक्षत कराने को प्रस्तुत था. तेरी टांकी से हृदय चिराने में प्रसन्न था कि कभी मेरी इस सहनशीलता का पुरस्कार, सराहना के रूप में मिलेगा और मेरी मौन मूर्ति अनंतकाल तक उस सराहना को चुपचाप गर्व से स्वीकार करती रहेगी. किंतु निष्ठुर! तूने अपने द्वार पर मुझे फूटे हुए ठीकरे की तरह ला पटका. अब मैं यहीं पर पड़ापड़ा कब तक अपने भविष्य की गणना करूंगा?”

पत्थर की करुणामयी पुकार से विमल को क्रोध का संचार हुआ. और वास्तव में इस पुकार में अतीत और करुणा दोनों का मिश्रण था, जो कि उस के चित्त का सरल विनोद था. विमल भावप्रवण हो कर रोष से गर्जन करता हुआ पत्थर की ओर से अनुरोध करने को शिल्पी के दरिद्र कुटीर में घुस पड़ा.

“क्यों जी, तुम ने इस पत्थर को कितने दिनों से यहां ला रखा है? भला वह भी अपने मन में क्या समझता होगा? सुस्त हो कर पड़े हो, उस की कोई सुंदर मूर्ति क्यों न बना डाली?” विमल ने रुक्ष स्वर से कहा.

पुरानी गुदड़ी में ढंकी जीर्णशीर्ण मूर्ति खांसी से कंप कर बोली, “बाबूजी! आप ने तो मुझे कोई आज्ञा नहीं दी थी.”

“अजी. तम बना लिए होते. फिर कोई न कोई तो इसे ले लेता. भला देखो तो यह पत्थर कितने दिनों से पड़ा तुम्हारे नाम को रो रहा है.” विमल ने कहा.

शिल्पी ने कफ निकाल कर गला साफ करते हुए कहा, “आप लोग अमीर आदमी हैं. अपनी कोमल श्रवणेंद्रियों से पत्थर का रोना, लहरों का संगीत, पवन की हंसी इत्यादि कितनी सूक्ष्म बातें सुन लेते हैं, और उस की पुकार में दत्तचित्त हो जाते हैं. करुणा से पुलकित होते हैं, किंतु क्या कभी दुखी हृदय के नीरव क्रंदन को भी अंतरात्मा की श्रवणेंद्रियों को सुनने देते हैं, जो करुणा का काल्पनिक नहीं, किंतु वास्तविक रूप है?”

विमल के अतीत और करुणा संबंधी समस्त सद्भाव कठोर कर्मण्यता का आह्वान करने के लिए उसी से विद्रोह करने लगे. वह स्तब्ध हो कर उसी मलिन भूमि पर बैठ गया.

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