दुःख के गीत

जनता के दुःख दांत की विकट पीड़ा के समान हैं और समाज के मुंह में ऐसे कई गले-सड़े तथा रोगी दांत हैं; किन्तु समाज सावधानी से और धैर्यपूर्वक उनकी चिकित्सा नहीं करता, उलटे बाहरी चमक-दमक द्वारा तथा चमचमाते सोने के मुलम्मे से, जो नेत्रों को दूर से दांतों की खराबी के बारे में अन्धा बना देता है, स्वयं को सन्तुष्ट कर लेता है। किन्तु अपने-आपको निरन्तर पीड़ा से रोगी तो अनभिज्ञ नहीं रख सकता।

सामाजिक दन्त-रोगों के कई चिकित्सक हैं, जो संसार में से पाप-रूपी दन्त-रोग को सौन्दर्य के भराव-मात्र उपचार से दूर करने का प्रयत्न करते हैं और बहत-से रोगी ऐसे हैं, जो समाज-सुधारकों की इच्छाओं पर चलते हैं और इस प्रकार अपने दुःखों को और भी बढ़ा लेते हैं। इस प्रकार अपनी क्षीण होती शक्ति को और भी कम कर बैठते हैं और अपने-आपको छलकर अधिकाधिक निश्चित रूप से मृत्यु की घाटी की ओर घसीटे ले चलते।

सीरिया के सड़े-गले दांत उसकी पाठशालाओं में पाये जाते हैं, जहां आज के युवक को कल का कष्ट-भोगी बनना सिखाया जाता है; वे उसके न्यायालयों में हैं, जहां न्यायाधीश कानून को तोड़ते-मरोड़ते हैं और उससे ऐसे खुद खेलते हैं, जैसे एक शेर अपने शिकार के साथ खेलता है; उसके राजभवनों में हैं, जहां मिथ्या और पाखण्ड का राज्य है और गरीबों की झोंपड़ियों में है, जहां भय, अज्ञान और भीरुता का निवास है।

कोमल उंगलियों वाले राजनैतिक दंत-चिकित्सक लोगों के कानों में यह चिल्ला-चिल्लाकर कहते हुए शहद उड़ेलते हैं कि वे राष्ट्रीय निर्बलता के छिद्रों को पूर रहे हैं। उनका गीत चलती चक्की के स्वर से भी अधिक ऊंची आवाज में सुनाया जाता है, किन्तु वास्तव में यह गंदे तालाब में टर्राते हुए मेंढक की आवाज-सी भी नहीं होता।

इस खोखले संसार में अनेक विचारक और आदर्शवादी हैं। उनके स्वप्न कितने धुंधले हैं। सौन्दर्य यौवन की सम्पत्ति है। किन्तु यौवन, जिसके लिए ही इस संसार की रचना _ हुई थी, एक ऐसे स्वप्न के सिवा कुछ भी नहीं, जिसका माधुर्य उस अज्ञानता का दास है, जो उसे बहुत देर बाद जगने देती है। क्या ऐसा भी कभी समय आयेगा, जब बुद्धिमान लोग यौवन के मधुर स्वप्नों तथा ज्ञान के हर्ष को एक साथ बांध देंगे? प्रत्येक का अलग-अलग अस्तित्व तो नगण्य है। क्या वह भी दिन कभी आयेगा, जब प्रकृति मनुष्य की शिक्षक, मानवता उसकी धर्म-पुस्तक और जीवन उसकी दैनिक पाठशाला होगी?

यौवन का उद्देश्य हर्ष-आनन्द के उपयुक्त और दायित्व में नम्रतापूर्ण-तब तक पूरे तौर से प्राप्त नहीं हो सकता, जब तक ज्ञान से दिन का सवेरा घोषित न हो।

ऐसे अनेक पुरुष हैं, जो अपने यौवन के बीते दिनों को द्वेषपूर्वक कोसते हैं और ऐसी बहुत-सी स्त्रियां हैं, जो अपने व्यर्थ गये वर्षों से उस ऋद्ध शेरनी की भांति, जिसके बच्चे खो गए हों, घृणा करती हैं और ऐसे युवक और युवतियां भी हैं, जो अपने हृदयों में भविष्य की कटार-रूपी स्मृतियों को छिपाये रखती हैं और अपने आपको अनजाने में ही हर्ष-विहीनता के तीखे और विषैले बाणों से घायल करते रहते हैं।

बुढ़ापा धरती की बर्फ है। इसे प्रकाश और सत्य के द्वारा अपने नीचे बसे यौवन के बीजों को गर्मी पहुंचाकर सुरक्षित रखना चाहिए और इनका प्रयोजन पूरा करना चाहिए, ताकि निसान आए और यौवन के उगते हुए पवित्र जीवन को नवजागरण द्वारा पूर्णतया विकसित करे।

हम अपने आत्मिक उत्थान की ओर बहुत धीरे-धीरे बढ़ रहे हैं और केवल वही तल, जो नभमंडल की तरह अनन्त है, सुन्दरता के प्रति हमारे अनुराग और प्रेम द्वारा हमें जीवन के सौन्दर्य का बोध कराता है।

भाग्य मुझे आधुनिक संकीर्ण सभ्यता के दुःखपूर्ण प्रवाह में बहा ले चला और प्रकृति की भुजाओं से छीन. उसके शीतल कुंजों से निकालकर उस भाग्य ने मुझे कठोरतापूर्वक जन-समुदाय के चरणों में जा पटका, जहां मैं नगर की यातनाओं का शिकार बना हुआ हूं।

किसी भी ईश्वर-पत्र को इतना कडा दण्ड नहीं मिला होगा। किसी भी ऐसे मनुष्य के भाग में इतना विकट देश-निकाला न लिखा होगा, जो पृथ्वी के एक तिनके से भी इतने उत्साह से प्रेम करता है कि उसके अस्तित्व का प्रत्येक तन्तु कांप उठता है। किसी भी अपराधी पर लगाये गए बन्धन मेरी कैद के संताप के सम्मुख कुछ भी न होंगे; क्योंकि मेरी कोठरी की संकीर्ण दीवारें मेरे हृदय को कुचल रही हैं।

भले ही हम स्वर्ण-अशर्फियों की दृष्टि से ग्रामवासियों से अधिक धनी हैं, किन्तु वे यथार्थ जीवन की पूर्णता में हमसे कहीं अधिक धनी हैं। हम प्रचुर मात्रा में बीज बोते हैं किन्तु पाते कुछ भी नहीं हैं। वे प्रकृति-प्रदत्त श्रेष्ठ और उदार पारितोषिक पाते हैं, जो ईश्वर के परिश्रमी बच्चों को प्रकृति देती है। हम हेर-फेर के व्यापार में धूर्तता से काम लेते हैं और वे प्रकृति की उपज को शान्ति और निष्कपटता से ग्रहण करते हैं। हम भविष्य के पिशाचों को देखते हुए बेचैनी की नींद सोते हैं और वे मां की गोद से चिपटे हुए बच्चे के समान निद्रा-निमग्न होते हैं। क्योंकि वे जानते हैं कि प्रकृति कभी भी अपनी अभ्यस्त उपज देना स्वीकार नहीं करेगी।

हम लाभ के दास हैं और वे सन्तोष के स्वामी हैं। हम जीवन के प्यालों में कडुआहट, निराशा, भय और थकान का पान करते हैं और वे ईश्वर के आशीर्वादों का स्वच्छतम अमृत पीते हैं।

हे अनुग्रह करने वाले परमात्मा! इन मीनारों के पीछे, जो मूर्तियों और प्रतिबिम्बों के अतिरिक्त कुछ भी नहीं, तू जो मुझसे छिप गया है, मेरी कैदी आत्मा की विलासपूर्ण पुकार सुन! मेरे फटते हुए हृदय का संताप सुन! मुझ पर दया कर और अपने इस भटकते हुए बच्चे को उन पर्वतों की ओर वापस ले चल, जहां तेरा अपना घर है।

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