एक आदमी धूप में पड़ा सो रहा था कि उसके शरीर पर इधर-उधर घूमती तीन चींटियां उसकी नाक पर आ इकट्ठी हुईं। तीनों ही बेहद थकी और हताश दिखाई दे रही थीं। उनके मन में वैसे ही भाव थे जैसे अत्यधिक मेहनत के बाद किसी व्यक्ति के हाथ निराशा लगने पर उत्पन्न होते हैं।
फिर भी एक-दूसरे को देखकर वे काफी प्रसन्न हुईं और अपने चेहरों पर उभरे निराशा के भावों को छिपाकर मुस्कराते हुए अपने-अपने खानदान की प्रथा के अनुसार एक-दूसरे का अभिवादन करने के बाद परस्पर वार्तालाप करने लगीं।
पहली चींटी ने कहा, “मैंने इन पहाड़ों और घाटियों से ज्यादा बंजर जगह और कोई नहीं देखी। मैंने यहां सारे दिन दानों की तलाश की है, लेकिन मुझे एक दाना भी नहीं मिला।”
दूसरी चींटी ने कहा, “मुझे भी कुछ नहीं मिला, यद्यपि एक-एक चप्पा छान मारा।
मेरे ख्याल से यह वही कोमल और अस्थिर भूमि है, जिसके बारे में हमारे जाति वाले कहते हैं कि यहां कछ पैदा नहीं होता।”
इसके बाद तीसरी चींटी ने सिर उठाया और कहा, “मेरी सहेलियो! इस समय हम ।
बड़ी चींटी की नाक पर बैठे हैं, जिसका सारा शरीर इतना बड़ा है कि हम उसे देख नहीं सकते। इसकी छाया इतनी विस्तृत है कि हम उसका अनुमान नहीं कर सकते। इसकी आवाज इतनी ऊंची है कि हमारे कान इसे सहन नहीं कर सकते, और वह हर जगह मौजूद है।”
जब तीसरी चींटी ने यह बात कही तो दूसरी चींटियों ने एक-दूसरे को देखा और जोर से हंसीं।
ठीक उसी समय आदमी नींद में हिला। चींटियां लड़खड़ाईं और गिरने के डर से उन्होंने अपने नन्हे-नन्हे पंजे उसकी नाक के मांस में गड़ा दिए, जिससे सोते-सोते में उस आदमी ने अपनी नाक को खुजलाया और तीनों चींटियां पिसकर रह गईं।