यमुना के किनारे वाले शाही महल में एक भयानक सन्नाटा छाया हुआ है, केवल बारबार तोपों की गड़गड़ाहट और अस्त्रों की झनकार सुनाई दे रही है. वृद्ध शाहजहां मसनद के सहारे लेटा हुआ है, और एक दासी दवा का पात्र लिए हुए खड़ी है.
शाहजहां अन्यमनस्क हो कर कुछ सोच रहा है, तोपों की आवाज से कभीकभी चौंक पड़ता है. अकस्मात उस के मुख से निकल पड़ा-नहीं नहीं, क्या वह ऐसा करेगा, क्या हम को तख्ताऊस से निराश हो जाना चाहिए?
“हां, अवश्य निराश हो जाना चाहिए.”
शाहजहां ने सिर उठा कर कहा-कौन? जहांआरा? क्या यह तुम सच कहती हो?
जहांआरा (समीप आ कर)-हां, जहांपनाह! यह ठीक है। क्योंकि आप का अकर्मण्य पुत्र ‘दारा’ भाग गया, और नमकहराम ‘दिलेर खां’ क्रूर औरंगजेब से मिल गया, और किला उस के अधिकार में हो गया.
शाहजहां-लेकिन जहांआरा! क्या औरंगजेब क्रूर है? क्या वह अपने बूढ़े बाप की कुछ इज्जत न करेगा? क्या वह मेरे जीते ही तख्तताऊस पर बैठेगा?
जहांआरा (जिस की आंखों में अभिमान का अश्रुजल भरा था)-जहांपनाह!
आप के इसी पुत्रवात्सल्य ने आप की यह अवस्था की. औरंगजेब एक नारकीय पिशाच है; उस का किया क्या नहीं हो सकता, एक भले कार्य को छोड़ कर.
शाहजहां-नहीं जहांआरा! ऐसा मत कहो. जहांआरा-हां जहांपनाह! मैं ऐसा ही कहती हूं.
शाहजहां-ऐसा? तो क्या जहांआरा! इस बदन में मुगल रक्त नहीं है? क्या तू मेरी कुछ भी मदद कर सकती है?
जहांआरा-जहांपनाह की जो आज्ञा हो.
शाहजहां-तो मेरी तलवार मेरे हाथ में दे. जब तक वह मेरे हाथ में रहेगी, कोई भी तख्तताऊस मुझ से न छुड़ा सकेगा.
जहांआरा (आवेश के साथ) ‘हां जहांपनाह! ऐसा ही होगा’ कहती हुई वृद्ध शाहजहां की तलवार उस के हाथ में दे कर खड़ी हो गई. शाहजहां उठा और लड़खड़ा कर गिरने लगा, शाहजादी जहांआरा ने बादशाह को पकड़ लिया, और तख्तताऊस के कमरे की ओर ले चली.
तख्तताऊस पर वृद्ध शाहजहां बैठा है, और नकाब डाले जहांआरा पास ही बैठी हुई है, और कुछ सरदार-जो उस समय वहां थे- खड़े हैं; नकीब (चारण) भी खड़ा है. शाहजहां के इशारा करते ही उस ने अपने चिरभ्यस्त शब्द कहने के लिए मुंह खोला. अभी पहला ही शब्द उस के मुंह से निकला था कि उस का सिर छिटक कर दूर जा गिरा! सब चकित हो कर देखने लगे.
जिरहबख्तर से लदा हुआ औरंगजेब अपनी तलवार को रूमाल से पोंछता हुआ सामने खड़ा हो गया, और सलाम कर के बोला-हुजूर की तबीयत नासाज सुन कर मुझ से न रहा गया, इसलिए हाजिर हुआ.
शाहजहां (कांप कर )-लेकिन बेटा! इतनी खूरंजी की क्या जरूरत थी? अभीअभी वह देखो, बुड्ढे नकीब की लाश लोट रही है. उफ! मुझ से यह नहीं देखा जाता! (कांप कर ) क्या बेटा, मुझे भी…(इतना कहतेकहते बेहोश हो कर तख्त से झुक गया).
औरंगजेब (कड़क कर अपने साथियों से)-हटाओ, उस नापाक लाश को.
जहांआरा से अब न रहा गया, और दौड़ कर सुगंधित जल ले कर वृद्ध पिता के मुख पर छिड़कने लगी.
औरंगजेब ( उधर देख कर )-हैं! यह कौन है, जो मेरे बूढ़े बाप को पकड़े हुए है? (शाहजहां के मुसाहिबों से) तुम सब बड़े नामाकूल हो; देखते नहीं, हमारे प्यारे बाप की क्या हालत है, और उन्हें अभी भी पलंग पर नहीं लिटाया. (औरंगजेब के साथसाथ सब तख्त की ओर बढ़े).
जहांआरा उन्हें यों बढ़ते देख कर फुरती से कटार निकाल कर और हाथ में शाही मुंहर किया हुआ कागज निकाल कर खड़ी हो गई और बोली-देखो, इस परवाने के मुताबिक मैं तुम लोगों को हुक्म देती हूं कि अपनीअपनी जगह पर खड़े रहो, जब तक मैं दूसरा हुक्म न दूं.
सब उसी कागज की ओर देखने लगे. उस में लिखा था-इस शख्स का सब लोग हुक्म मानो और मेरी तरह इज्जत करो. के सब उस की अभ्यर्थना के लिए झुक गए, स्वयं औरंगजेब भी झुक गया, और कई क्षण तक सब निस्तब्ध थे.
अकस्मात् औरंगजेब तन कर खड़ा हो गया और कड़क कर बोला- गिरफ्तार कर लो इस जादूगरनी को. यह सब झूठा फिसाद है, हम सिवा शाहंशाह के और किसी को नहीं मानेंगे.
सब लोग उस औरत की ओर बढ़े. जब उस ने यह देखा, तब फौरन अपना नकाब उलट दिया. सब लोगों ने सिर झुका दिया, और पीछे हट गए. औरंगजेब ने एक बार फिर सिर नीचे कर लिया, और कुछ बड़बड़ा कर जोर से बोला-कौन जहांआरा, तुम यहां कैसे?
जहांआरा-औरंगजेब! तुम यहां कैसे?
औरंगजेब (पलट कर अपने लड़के की तरफ देख कर )-बेटा! मालूम होता है कि बादशाह बेगम का कुछ दिमाग बिगड़ गया है, नहीं तो इस बेशर्मी के साथ इस जगह पर न आती. तुम्हें इन की हिफाजत करनी चाहिए.
जहांआरा-औरंगजेब के दिमाग को क्या हआ है, जो वह अपने बाप के साथ बेअदबी से पेश आया.
अभी इतना उस के मुंह से निकला ही था कि शाहजादे ने फुरती से उस के हाथ से कटार निकाल ली और कहा-मैं अदब के साथ कहता हूं कि आप महल में चलें, नहीं तो….
जहांआरा से यह देख कर न रहा गया. रमणी-सुलभ वीरता और अस्त्र, क्रंदन और अश्रु का प्रयोग उस ने किया और गिड़गिड़ा कर औरंगजेब से बोली-क्यों औरंगजेब! तुम को कुछ भी दया नहीं है?
औरंगजेब ने कहा-दया क्यों नहीं बादशाह बेगम! दारा जैसे तुम्हारा भाई था, वैसा ही मैं भी तो भाई ही था, फिर तरफदारी क्यों?
जहांआरा-वह तो बाप का तख्त नहीं लेना चाहता था, उस के हुक्म से सल्तनत का काम चलाता था. – औरंगजेब-तो क्या मैं वह काम नहीं कर सकता? अच्छा, बहस की जरूरत नहीं है. बेगम को चाहिए कि वह महल में जाए.
जहांआरा कातर दृष्टि से वृद्ध मूछित पिता को देखती हुई शाहजादे की बताई राह से जाने लगी.
यमुना के किनारे एक महल में शाहजहां पलंग पर पड़ा है, और जहांआरा उस के सिरहाने बैठी हुई है.
जहांआरा से जब औरंगजेब ने पूछा कि वह कहां रहना चाहती है, तब उस ने केवल अपने वृद्ध और हतभागे पिता के साथ रहना स्वीकार किया, और अब वह .. साधारण दासी के वेश में अपना जीवन अभागे पिता की सेवा में व्यतीत करती है.
वह भड़कदार शाही पेशवाज अब उस के बदन पर नहीं दिखाई पड़ती, केवल सादे वस्त्र ही उस के प्रशांत मुख की शोभा बढ़ाते हैं. चारों ओर उस शाही महल में एक शांति दिखाई पड़ती है. जहांआरा ने, जो कुछ उस के पास थे, सब सामान गरीबों को बांट दिए; और अपने निज के बहुमूल्य अलंकार भी उस ने पहनना छोड़ दिए. अब वह एक तपस्विनी ऋषिकन्या सी हो गई! बातबात पर दासियों पर वह झिड़की उस में नहीं रही. केवल आवश्यक वस्तुओं से अधिक उस के रहने के स्थान में और कुछ नहीं है.
वृद्ध शाहजहां ने लेटेलेटे आंख खोल कर कहा-बेटी, अब दवा की कोई जरूरत नहीं है, यादे-खुदा ही दवा है. अब तुम इस के लिए मत कोशिश करना.
जहांआरा ने रो कर कहा-पिता, जब तक शरीर है, तब तक उस की रक्षा करनी ही चाहिए.
शाहजहां कुछ न बोल कर चुपचाप पड़े रहे. थोड़ी देर तक जहांआरा बैठी रही; फिर उठी और दवा की शीशियां यमुना के जल में फेंक दी.
थोड़ी देर तक वहीं बैठीबैठी वह यमुना का मंद प्रवाह देखती रही. सोचती थी कि यमुना का प्रवाह वैसा ही है, मुगल साम्राज्य भी तो वैसा ही है; वह शाहजहां भी तो जीवित है, लेकिन तख्तताऊस पर तो वह नहीं बैठते.
इसी सोचविचार में वह तब तक बैठी थी, जब तक चंद्रमा की किरणें उस के मुख पर नहीं पड़ी.
शाहजादी जहांआरा तपस्विनी हो गई है. उस के हृदय में वह स्वाभाविक तेज अब नहीं है, किंतु एक स्वर्गीय तेज से वह कांतिमयी थी. उस की उदारता पहले से भी बढ़ गई. दीन और दुखी के साथ उस की ऐसी सहानुभुति थी कि लोग ‘मूर्तिमती करुणा’ मानते थे. उस की इस चाल से पाषाण हृदय औरंगजेब भी विचलित हुआ.
उस की स्वतंत्रता जो छीन ली गई थी, उसे फिर मिली. पर अब स्वतंत्रता का उपभोग करने के लिए अवकाश ही कहां था? .
पिता की सेवा और दुखियों के प्रति सहानुभूति करने से उसे समय ही नहीं था. जिस की सेवा के लिए सैकड़ों दासियां हाथ बांध कर खड़ी रहती थीं, वह स्वयं दासी की तरह अपने पिता की सेवा करती हुई अपना जीवन व्यतीत करने लगी. वृद्ध शाहजहां के इंगित करने पर उसे उठा कर बैठाती और सहारा दे कर कभीकभी यमुना के तट तक उसे ले जाती और उस का मनोरंजन करती हुई छाया सी बनी रहती.
वृद्ध शाहजहां ने इहलोक की लीला पूरी की. अब जहांआरा को संसार में कोई काम नहीं है. केवल इधरउधर उसी महल में घूमना भी अच्छा नहीं मालूम होता. उस की पूर्व स्मृति और भी उसे सताने लगी. धीरेधीरे वह बहुत क्षीण हो गई. बीमार पड़ी. पर, दवा कभी न पी. धीरेधीरे उस की बीमारी बहुत बढ़ी और उस की दशा बहुत खराब हो गई, तब औरंगजेब ने सुना. अब उस से भी सह्य न हो सका. वह जहांआरा को देखने के लिए गया.
एक पुराने पलंग पर, जीर्ण बिछौने पर, जहांआरा पड़ी थी और धीमी सांस चल रही थी. औरंगजेब ने देखा कि वही जहांआरा है, जिस के लिए भारतवर्ष की कोई वस्तु अलभ्य नहीं थी, जिस के बीमार पड़ने पर शाहजहां भी व्यग्र हो जाता था और सैकड़ों हकीम उसे आरोग्य करने के लिए प्रस्तुत रहते थे. वह इस तरह एक कोने में पड़ी है!
पाषाण भी पिघला, औरंगजेब की आंखें आंसुओं से भर आईं और वह घुटने के बल बैठ गया. समीप मुंह ले जा कर बोला-बहन, कुछ हमारे लिए हुक्म है? – जहांआरा ने अपनी आंखें खोल दी और एक पुरजा उस के हाथ में दिया, जिसे झुक कर औरंगजेब ने लिया. फिर पूछा-बहन, क्या तुम हमें माफ करोगी?
जहांआरा ने खुली हुई आंखों को आकाश की ओर उठा दिया. उस समय उन में से एक स्वर्गीय ज्योति निकल रही थी और वह वैसे ही देखती रह गई. औरंगजेब उठा और उस ने आंसू पोंछते हुए पुरजे को पढ़ा. उस में लिखा था.
बगैर सब्जः न पोश्द कसे मजार मरा.
कि कब्रपोश गरीबां हमीं गयाह बसस्त..