गुदड़ी में लाल

दीर्घ निःश्वासों का क्रीड़ा स्थल, गरमगरम आंसुओं का फूटा हुआ पात्र! कराल काल की सारंगी, एक बुढ़िया का जीर्ण कंकाल, जिस में अभिमान के लय में करुणा की रागिणी बजा करती है.

अभागिनी बुढ़िया, एक भले घर की बहूबेटी थी. उसे देख कर दयालु वयोवृद्ध “हे भगवान!’ कह के चुप हो जाते थे. दुष्ट कहते थे कि अमीरी में बड़ा सुख लूटा है. नवयुवक देशभक्त कहते थे, देश दरिद्र है; खोखला है. अभागे देश में जन्म ग्रहण करने का फल भोगती है. आगामी भविष्य की उज्ज्वलता में विश्वास रख कर हृदय के रक्त पर संतोष करे. जिसे देश का भगवान ही नहीं; उसे विपत्ति क्या! सुख क्या!

परंतु बुढ़िया सब से यही कहा करती थी, “मैं नौकरी करूंगी. कोई मेरी नौकरी लगा दो.”

देता कौन? जो. एक घड़ा जल भी नहीं भर सकती, जो स्वयं उठ कर सीधी खड़ी नहीं हो सकती थी, उस से कौन काम कराए? किसी की सहायता लेना पसंद नहीं, किसी की भिक्षा का अन्न उस के मुख में पैठता ही न था. लाचार हो कर बाबू रामनाथ ने उसे अपनी दुकान में रख लिया.

बुढ़िया की बेटी थी, वह दो पैसे कमाती थी. अपना पेट पालती थी, परंतु बुढ़िया का विश्वास था कि कन्या का धन खाने से उस जन्म में बिल्ली, गिरगिट और भी क्याक्या होता है.

अपनाअपना विश्वास ही है, परंतु धार्मिक हो या नहीं, बुढ़िया को अपने आत्माभिमान का पूर्ण विश्वास था. वह अटल रही. सर्दी के दिनों में अपने ठिठुरे हुए हाथ से वह अपने लिए पानी भर के रखती. अपनी बेटी से संभवतः उतना ही काम कराती, जितना अमीरी के दिनों में कभीकभी उसे अपने घर बुलाने पर कराती.

बाबू रामनाथ उसे मासिक वृत्ति देते थे. और भी तीनचार पैसे उसे चबेनी के, जैसे और नौकरों को मिलते थे, मिला करते थे. कई बरस बुढ़िया के बड़ी प्रसन्नता से कटे. उसे न तो दुख था और न सुख.

दुकान में झाड़ लगा कर उस की बिखरी हुई चीजों को बटोरे रहना और बैठेबैठे थोड़ा घना जो काम हो करना, बुढ़िया का दैनिक कार्य था. उस से कोई नहीं पूछता था कि तुम ने कितना काम किया. दुकान के और कोई नौकर यदि दुष्टतावश उसे छेड़ते भी थे, तो उन्हें रामनाथ डांट देता था.

वसंत, वर्षा, शरद और शिशिर की संध्या में जब विश्व की वेदना, जगत की थकावट, धूसर चादर में मुंह लपेट कर क्षितिज के नीरव प्रांत में सोने जाती थी; बुढ़िया अपनी कोठरी में लेट रहती. अपनी कमाई के पैसे से पेट भर कर, कठोर पृथ्वी की कोमल रोमावली के समान हरीहरी दूब पर भी लेट रहना किसीकिसी के सुखों की संख्या है, वह सब को प्राप्त नहीं. बुढ़िया धन्य हो जाती थी, उसे संतोष होता.

एक दिन उस दुर्बल बुढ़िया को बनिए की दुकान में लाल मिर्चे फटकनी पड़ी. बुढ़िया ने कैसेकैसे कष्ट से उसे संवारा. परंतु उस की तीव्रता वह सहन न कर सकी. उसे मूर्छा आ गई. रामनाथ ने देखा, और देखा अपने कठोर तांबे के पैसे की ओर.

उस के हृदय ने धिक्कारा, परंतु अंतरात्मा ने ललकारा. उस बनिया रामनाथ को साहस हो गया. उस ने सोचा, क्या इस बुढ़िया को ‘पिन्सिन’ नहीं दे सकता? क्या उन के पास इतना अभाव है? अवश्य दे सकता है. उस ने मन में निश्चय किया.

“तुम बहुत थक गई हो, अब तुम से काम नहीं हो सकता.”

बुढ़िया के देवता कूच कर गए. उस ने कहा, “नहीं नहीं, अभी तो मैं अच्छी तरह काम कर लेती हूं.”

“नहीं, अब तुम काम करना बंद कर दो, मैं तुम को घर बैठे दिया करूंगा.”

“नहीं बेटा! अभी तुम्हारा काम मैं अच्छा भला किया करूंगी.”

बुढ़िया के गले में कांटे पड़ गए थे. किसी सुख की इच्छा से नहीं, पेंशन के लोभ से भी नहीं. उस के मन में धक्का लगा.

वह सोचने लगी, मैं बिना किसी काम के किए इस का पैसा कैसे लूंगी? क्या यह भीख नहीं? आत्माभिमान झनझना उठा. हृदय तंत्री के तार कड़े हो कर चढ़ गए.

रामनाथ ने मधुरता से कहा, “तुम घबराओ मत, तुम को कोई कष्ट न होगा.”

बुढ़िया चली आई. उस की आंखों में आंसू न थे. आज वह सूखे काठ सी हो गई. घर जा कर बैठी, कोठरी में अपना सामान एक ओर सुधारने लगी.

बेटी ने कहा, “मां, यह क्या करती हो?” मां ने कहा, “चलने की तैयारी.”

रामनाथ अपने मन में अपनी प्रशंसा कर रहा था, अपने को धन्य समझता था. उस ने समझ लिया कि आज हम ने एक अच्छा काम करने का संकल्प लिया है. भगवान इस से अवश्य प्रसन्न होंगे.

बुढ़िया अपनी कोठरी में बैठीबैठी विचारती थी, “जीवन भर के संचित इस अभिमान धन को एक मुट्ठी अन्न की भिक्षा पर बेच देना होगा. असहाय! भगवान क्या मेरा इतना सुख भी नहीं देख सकते! उन्हें सुनना होगा. वह प्रार्थना करने लगी:

“इस अनंत ज्वालामयी सृष्टि के कर्ता! क्या तुम्ही करुणानिधान हो? क्या इसी डर से तुम्हारा अस्तित्व माना जाता है? अभाव, आशा, असंतोष और आर्तनादों के आचार्य! क्या तुम्हीं दीनानाथ हो! तुम्हीं ने वेदना का विषम जाल फैलाया है. तुम्हीं ने निष्ठुर दुखों के सहने के लिए मानव हृदय सा कोमल पदार्थ चुना है और उसे विचारने के लिए, स्मरण करने के लिए दिया है अनुभवशील मस्तिष्क? कैसी कठोर कल्पना है, निष्ठुर! तुम्हारी कठोर करुणा की जय हो! मैं चिर पराजित हूं.”

सहसा बुढ़िया के शीर्ण (कुम्हलाया हुआ चेहरा) पर कांति आ गई. उस ने देखा, एक स्वर्गीय ज्योति उसे बुला रही है. वह हंसी, फिर शिथिल हो कर लेट रही.

रामनाथ ने दूसरे ही दिन सुना कि बुढ़िया चली गई. वेदना क्लेशहीन अक्षयलोक में उसे स्थान मिल गया. उस महीने की पेंशन ने उस का दाहकर्म करा दिया.

फिर एक दीर्घ निःश्वास छोड़ कर बोला, “अमीरी की बाढ़ में न जाने कितनी वस्तुएं कहां से आ कर एकत्र हो जाती हैं, बहुतों के पास उस बाढ़ के घट जाने पर केवल कुरसी, कोच और टूटे गहने रह जाते हैं. परंतु बुढ़िया के पास रह गया था सच्चा स्वाभिमान… गुदड़ी में लाल.”

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