खंडहर की लिपि

जब बसंत की पहली लहर अपना पीला रंग सीमा के खेतों पर चढ़ा लाई, काली कोयल ने उसे बरजना आरंभ किया और भौरे गुनगुना कर कानाफूसी करने लगे, उसी समय एक समाधि के पास लगे हुए गुलाब ने मुंह खोलने का उपक्रम (प्रयास) किया. किंतु किसी युवक के चंचल हाथ ने उस का हौसला भी तोड़ दिया.

दक्षिण पवन ने उस से कुछ झटक लेना चाहा, बेचारे की पखंड़ियां झड़ गईं. युवक ने इधरउधर देखा. एक उदासी और अभिलाषामयी शून्यता ने उस की प्रत्याशी दृष्टि को कुछ उत्तर न दिया. वसंत पवन का एक भारी झोंका ‘हा-हा’ करता उस की हंसी उड़ाता चला गया.

सटी हुई टेकरी की टूटीफूटी सीढ़ी पर युवक चढ़ने लगा. पचास सीढ़ियां चढ़ने के बाद वह बगल की पुरानी दालान में विश्राम लेने के लिए ठहर गया. ऊपर जो जीर्ण मंदिर था, उस का ध्वंसावशेष देखने को वह बारबार जाता था. उस भग्न स्तूप से युवक को आमंत्रित करती हुई ‘आओआओ’ की अपरिस्फुट पुकार बुलाया करती. जाने कब के अतीत ने उसे स्मरण कर रखा है.

मंडप के भग्न कोण में एक पत्थर के ऊपर न जाने कौन सी लिपि थी, जो किसी कोरदार पत्थर में लिखी गई थी. वह नागरी तो कदापि नहीं थी. युवक ने आज फिर उसी ओर देखतेदेखते उसे पढ़ना चाहा. बहुत देर तक घूमताघूमता वह थक गया था, इस से उसे निद्रा आने लगी. वह स्वप्न देखने लगा.

कमलों का कमनीय विकास झील की शोभा को द्विगुणित कर रहा है. उस के आमोद के साथ वीणा की झनकार, झील के स्पर्श के शीतल और सुरभित पवन में भर रही थी. सुदूर प्रतीचि में एक सहस्रदल स्वर्ण कमल अपनी शेष स्वर्णकिरण की भी मृणाल पर व्योम निधि में खिल रहा है. वह लज्जित होना चाहता है. वीणा के तारों पर उस की अंतिम आभा की चमक पड़ रही है.

एक आनंदपूर्ण विषाद से युवक अपनी चंचल अंगुलियों को नचा रहा है. एक दासी स्वर्णपात्र में केसर, अगरु, चंदनमिश्रित अंगराग और नवमल्लिका की माला, कई तांबूल लिए हुई आई, प्रणाम कर के उस ने कहा, “महाश्रेष्ठि धनमित्र की कन्या ने श्रीमान के लिए उपहार भेज कर प्रार्थना की है कि आज के उद्यान गोष्ठ में आप अवश्य पधारने की कृपा करें.

आनंद विहार के समीप उपवन में आप की प्रतीक्षा करती हुई कामिनी देवी बहुत देर तक रहेंगी.”

युवक ने विरक्त हो कर कहा, “अभी कई दिन हुए हैं, मैं सिंहल से आ रहा हूं, मेरा पोत समुद्र में डूब गया है. मैं ही किसी तरह बचा हूं.

अपनी स्वामिनी से कह देना कि मेरी अभी ऐसी अवस्था नहीं है कि मैं उपवन के आनंद का उपयोग कर सकूँ.”

“तो प्रभु, क्या मैं यही उत्तर दे दूं?” दासी ने कहा.

“हां, और यह भी कह देना कि तुम सरीखी अविश्वसनीय स्त्रियों से मैं और भी – दूर भागना चाहता हूं, जो प्रलय के समुद्र की प्रचंड आंधी में एक जर्जर पोत से भी

दुर्बल और उस डुबा देने वाली लहर से भी भयानक हैं.” युवक ने अपनी वीणा संवारते हुए कहा.

वे उस उपवन में कभी की जा चुकी हैं, और हम से यह भी कहा है कि यदि वे गोष्ठ में न आना चाहें, तो स्तूप की सीढ़ी के विश्राम मंडप में मुझ से एक बार अवश्य मिल लें, मैं निर्दोष हूं.” दासी ने सविनय कहा.

युवक ने रोष भरी दृष्टि से देखा. दासी प्रणाम कर के चली गई. सामने का एक कमल संध्या के प्रभाव से कुम्हला रहा था.

युवक को प्रतीत हुआ कि वह धन मित्र की कन्या का मुख है. उस से मकरंद नहीं, अश्रु गिर रहे हैं. “मैं निर्दोष हूं,” यही भौरे भी गूंज कर कह रहे हैं. .

युवक ने स्वप्न में चौंक कर कहा, “मैं आऊंगा.”

आंख न खोलने पर भी उस ने उस जीर्ण दालान की लिपि पढ़ ली, “निष्ठुर! अंत को तुम नहीं आए.”

युवक सचेत हो कर उठने को था कि वह कई सौ बरस की पुरानी छत धम से गिरी.

वायुमंडल में, “आओ आओ” का शब्द गूंजने लगा.

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