श्यामसुंदर ने विरक्त हो कर कहा, “कला! यह मुझे नहीं अच्छा लगता.” कलावती ने लैंप की बत्ती कम करते हुए, सिर झुका कर तिरछी चितवन से देखते हुए कहा, “फिर मुझे भी सोने के समय यह रोशनी अच्छी नहीं लगती.”
श्यामसुंदर ने कहा, “तुम्हारा पलंग तो इस रोशनी से बचा है. तुम जा कर सो रहो.”
“और तुम रात भर यों ही जागते रहोगे.” अब की धीरे से कलावती ने हाथ से पुस्तक भी खींच ली.
श्यामसुंदर को इस स्नेह में भी क्रोध आ गया. तिनक गए, “तुम पढ़ने का सुख नहीं जानती, इसलिए तुम को समझाना ही मूर्खता है.” ।
कलावती ने प्रगल्भ हो कर कहा, “मूर्ख बन कर थोड़ा समझा दो.”
श्यामसंदर भडक उठे, उन की शिक्षिता उपन्यास की नायिका उसी अध्याय में अपने प्रणयी के सामने आई थी-वह आगे बातचीत करती; उसी समय ऐसा व्याघात. ‘स्त्रीणामाद्य प्रणय-वचन’ कालिदास ने भी इसे नहीं छोड़ा था. कैसा अमूल्य पदार्थ! अशिक्षिता कलावती ने वहीं रस भंग किया. बिगड़ कर बोले, “वह तुम इस जन्म में नहीं समझोगी.”
कलावती ने और भी हंस कर कहा, “देखो, उस जन्म में भी ऐसा बहाना न करना.”
पुष्पाधार में धरे हुए नरगिस के गुच्छे ने अपनी एक टक देखती हुई आंखों से चुपचाप यह दृश्य देखा और वह कालिदास के तात्पर्य को बिगाड़ते हुए श्यामसुंदर की धृष्टता न सहन कर सका, और शेष ‘विभ्रमोहि प्रियेषु’ का पाठ हिल कर करने लगा.
श्यामसुंदर ने लैंप की बत्ती चढ़ाई, फिर अध्ययन आरंभ हुआ. कलावती अब की अपने पलंग पर जा बैठी. डब्बा खोल कर पान लगाया, दो खीली (पान का बीड़ा) ले कर फिर श्यामसुंदर के पास आई.
श्याम ने कहा, “रख दो.” .
खीलीवाला हाथ मुंह की ओर बढ़ा, कुछ मुख भी बढ़ा, पान उस में चला गया. कलावती फिर लौटी और एक चीनी की पुतली ले कर उसे पढ़ाने बैठी, “देखो, मैं तुम्हें दोचार बातें सिखाती हूं, उन्हें अच्छी तरह रट लेना. लज्जा कभी न करना, यह पुरुषों की चालाकी है, जो उन्होंने इसे स्त्रियों के हिस्से कर दिया है.”
यह दूसरे शब्दों में एक प्रकार का भ्रम है, इसलिए तुम भी ऐसा रूप धारण करना कि पुरुष, जो बाहर से अनुकंपा करते हुए तुम से भीतरभीतर घृणा करते हैं, वे भी तुम से भयभीत रहें, तुम्हारे पास आने का साहस न करें और कृतज्ञ होना दासत्व है. चतुरों ने अपना कार्य साधन करने का अस्त्र इसे बनाया है. इसीलिए इस की ऐसी प्रशंसा की है कि लोग इस की ओर आकर्षित हो जाते हैं. किंतु है यह दासत्व. यह शरीर का नहीं, किंतु अंतरात्मा का दासत्व है. इस कारण कभीकभी लोग बुरी बातों का भी समर्थन करते हैं.
प्रगल्भता, जो आजकल बड़ी बाढ़ पर है, बड़ी अच्छी वस्तु है. उस के बल से मूर्ख भी पंडित समझे जाते हैं. उस का अच्छा अभ्यास करना, जिस में तुम को कोई मूर्ख न कह सके, कहने का साहस ही न हो. पुतली! तुम ने रूप का परिवर्तन भी छोड़ दिया है, यह और भी बुरा है. सोने के कोर की साड़ी तुम्हारे मस्तक को अभी भी ढंके है, तनिक इसे खिसका दो. बालों को लहरा दो. लोग लगें पैर चूमने, प्यारी पुतली! समझी न?”
श्यामसुंदर की उपन्यास की नायिका भी अपने नायक के गले लग गई थी, प्रसन्नता से उस का मुख मंडल चमकने लगा. वह अपना आनंद छिपा नहीं सकता था. पुतली की शिक्षा उस ने सुनी कि नहीं, हम नहीं कह सकते, किंतु वह हंसने लगा. कलावती को क्या सूझा, लो वह तो सचमुच उस के गले लगी हुई थी. अध्याय समाप्त हुआ. पुतली को अपना पाठ याद रहा कि नहीं, लैंप के धीमे प्रकाश में कुछ समझ न पड़ा.