संध्या की दीनता गोधूलि के साथ दरिद्र मोहन की रिक्त थाली में धूल भर रही है. नगरोपकंठ में एक कुएं के समीप बैठा हुआ अपनी छोटी बहन को वह समझा रहा है. फटे हुए कुरते की कोर से उस के अश्रु पोंछने में वह सफल नहीं हो रहा था, क्योंकि कपड़े के सूत से अश्रु विशेष थे. थोड़ा सा चना, जो उस के पात्र में बेचने से बचा था, उसी को रामकली मांगती थी. तीन वर्ष की रामकली को तेरह वर्ष का मोहन संभालने में असमर्थ था.
ढाई पैसे का वह बेच चुका है. अभी दोतीन पैसे का चना जो जल और मिर्च में उबाला हुआ था, और बचा है. मोहन चाहता था कि चार पैसे उस के रोकड़ में और बचे रहें, डेढदो पैसे का कुछ ले कर अपना और रामकली का पेट भर लेगा. चार पैसे से सबेरे चने उबाल कर फिर अपनी दुकान लगा लेगा. किंतु विधाता को यह स्वीकार नहीं था.
जब से उस के मातापिता मरे, साल भर से वह इसी तरह अपना जीवन निर्वाह करता था. किसी संबंधी या सज्जन की दृष्टि उस की ओर न पड़ी. मोहन अभिमानी था. वह धुन का भी पक्का था. किंतु आज वह विचलित हुआ. रामकली की कौन कहे, वह भी भूख की ज्वाला सहन न कर सका. अपने अदृष्ट के सामने हार मान कर रामकली को उस ने खिलाया. बचा हुआ जो था, उस ने मोहन के पेट की गरमी और बढ़ा दी. ढाई पैसे का और भी कुछ ला कर अपनी भूख मिटाई. दोनों कुएं की जगत पर सो गए.
दरिद्रता और करुणा से झगड़ा चल पड़ा. दरिद्रता बोली, “देखो जी, मेरा कैसा प्रभाव है.”
करुणा ने कहा, “मेरा सर्वत्र राज्य है. तुम्हारा विद्रोह सफल न होगा.”
दरिद्रता ने कहा, “गिरती हुई बालू की दीवार कह कर नहीं गिरती. तुम्हारा काल्पनिक क्षेत्र नीहार की वर्षा से कब तक सिंचा रहेगा?”
अभिमान अभी तक चुप बैठा रहा, किंतु उस से नहीं रहा गया. कहा, “मैं भी किसी दल में घुस कर देखूगा कि कौन जीतता है.”
दोनों ने पूछा कि तुम किस का साथ दोगे? अभिमान ने कहा, “जिधर की जीत देखंगा.”
करुणा ने विश्रांत बालकों को सुख देने का विचार किया. मलय हिल्लोल की. थपकी दे कर सुला देना चाहा. दरिद्रता ने दिन भर की जमी हुई गर्द कदंब के पत्तों पर से खिसका दी. बालकों के सरल मुख ने धूल पड़ने से कुछ विकृत रूप धारण किया.
दरिद्रता ने स्वप्न में भयानक रूप धारण कर के उन्हें दर्शन दिया. मोहन का शरीर कांपने लगा. दूर से देखती हुई करुणा भी कंप उठी. अकस्मात मोहन उठा और झोंक से बोला, “भीख न मांगूंगा, मरूंगा.”
एक क्रंदन और धमाका. रामकली को कुएं ने अपनी शीतल गोद में ले लिया. डाल पर से दरिद्रता के अट्टहास की तरह उल्लू बोल उठा. उसी समय बंगले पर मेहंदी की टट्टी से घिरे हुए चबूतरे पर आसमानी पंखे के नीचे मसहरी में से नगर पिता दंडनायक चिल्ला उठे, “पंखा खींचो.”
प्रसन्न वदन न्यायाधीश ने एक स्थिर दृष्टि से देखते हुए अपराधी मोहन से कहा, “बालक, तुम ने अपराध स्वीकार करते हुए कि अपनी बहन रामकली की हत्या तुम्ही ने करी है, मृत्यु दंड चाहा है. किंतु न्याय अपराध का कारण ढूंढ़ता है. सिर काटती है तलवार, किंतु वही सिर काटने के अपराध में नहीं तोड़ी जाती है. निर्दोष बालक, तुम्हारा कुछ भी अभी कर्त्तव्य नहीं है. तुम ने यदि यह हत्या की भी हो, तो तुम केवल हत्यारी के अस्त्र थे. नगर के व्यवस्थापक पर इस का दायित्व है कि तीन वर्ष की रामकली तुम्हारे हाथ में क्यों दी गई!
यदि कोई उत्तराधिकारी विहीन धनी मर जाता, तो व्यवस्थापक नगर पिता उस के धन को अपने कोष में रखवा लेते. यदि निर्बोध उत्तराधिकारी रहता, तो उस की संपत्ति सुरक्षित करने की वह व्यवस्था करते. किंतु असहाय, निर्धन और अभिमानी तथा निर्बोध बालक के हाथ में शिशु का भार रख देना राष्ट्र के शुभ उद्देश्य की गुप्त रीति से और शिशु की प्रकट हत्या करना है. तुम इस के अपराधी नहीं हो. तुम मुक्त हो.”
करुणा रोते हुए हंस पड़ी. अपनी विजय की वर्षा मोहन के अभिमान के अश्रु बन कर बहने लगी.