अनेकों की प्रसन्नताओं से भी मैं अपनी मनोव्यथाओं को नहीं बदलूंगा और न मैं उन आंसुओं को, जो मेरे प्रत्येक अंग से संताप बहा ले जाते हैं, हंसी में बदलना चाहूंगा। मैं तो यही चाहूंगा कि मेरा जीवन एक आंसू और एक मुस्कान ही बना रहे-एक आंसू जो मेरे हृदय को पवित्र करके जीवन के रहस्यों और गुप्त विषयों से मेरा बोध करा दे; एक मुस्कान, जो मुझे अपनी जाति के पुत्रों के समीप लाये और जिसमें मैं देवताओं की भव्यता का प्रतिरूप बन जाऊं। एक आंसू जो मुझे निराश लोगों से मिला दे और एक मुस्कान, जो मेरे जीवन में हर्ष का प्रतीक बन जाय।
एक थके-हारे और निराश जीवन की अपेक्षा मैं उत्सुक तथा आकांक्षी रहकर मर जाना चाहूंगा। अपनी आत्मा की गहराइयों में उतरने के लिए मैं प्रेम और सौन्दर्य की भूख चाहता हूं, क्योंकि मैंने उन लोगों को, जो सन्तुष्ट रहते हैं, अत्यन्त दुःखी पाया है। मैंने उत्कंठित और आकांक्षी लोगों की आहे सुनी हैं और उन्हें मधुरतम लय से भी मीठा पाया है।
सन्ध्या होती है तो पुष्प अपनी पत्तियों को समेट लेता है और अपनी इच्छाओं को गले लगाकर सो जाता है। भोर होते ही वह सूर्य का चुम्बन पाने के लिए अपने अधरों को खोल देता है। पुष्प का जीवन है आकांक्षा और उसकी पूर्ति-एक आंसू और एक मुस्कान।
सागर का जल वाष्प बनता है, ऊपर उठता है, इकट्ठा होता है और मेघ बन जाता है, मेघ पहाड़ियों और घाटियों के ऊपर मंडराता रहता है, जब तक कि उसकी भेंट मन्द पवन से नहीं हो जाती। तब वह विलाप करता हुआ आंसू बनकर खेतों और खलिहानों पर गिर पड़ता है और अपने घर-सागर-को लौटने के लिए नदियों और नालों से जा मिलता है।
मेघ का जीवन एक वियोग और संयोग है, बस-एक आंसू और एक मुस्कान। इसी प्रकार आत्मा भौतिक संसार में विचरने के हेत विशाल आत्मा-ईश्वर से बिछड जाती है और मेघ के समान ही संताप के पर्वतों तथा हर्ष के मैदानों को पार करती हुई मृत्यु की शीतल वायु से जा मिलती है और फिर लौट जाती है, वहां, जहां से चली थी-प्रेम और सौन्दर्य के सागर में-ईश्वर में।
सूर्य ने उन हरे-भरे बगीचों पर से अपने वस्त्र समेट लिये और दूर क्षितिज से उदय होकर चन्द्रमा ने अपनी शीतल चांदनी सब ओर छिटका दी। मैं वहां एक पेड़ के नीचे बैठा सांझ के बदलते रंगों को देखने लगा। वृक्ष की टहनियों के पार मैंने छिटके सितारों को देखा, जो नीले रंग के गलीचे पर सिक्के की तरह बिखरे हुए जान पड़ते थे और दूर घाटी में से आता झरनों का मधुर कलकल सुनता रहा।
जब पक्षियों ने पत्तियों से ढकी शाखाओं में अपने आपको सुरक्षित कर लिया, पुष्पों ने अपनी आंखें मींच ली और शांति का साम्राज्य स्थापित हो गया, तो मेरे कानों में घास पर पड़ती हलकी पदचाप सुनाई दी। मैं जो मुड़ा तो मैंने एक युवक और एक युवती को अपनी ओर आते हुए देखा। वे रुक गये और एक वृक्ष के नीचे बैठ गये। । युवक ने अपने चारों ओर देखा और कहा, “मेरे पास बैठो प्रिये, और ठीक से मेरे शब्दों को सुनो। मुस्काओ, क्योंकि तुम्हारी मुस्कान, हमारे सम्मुख जो कुछ भी है, उसकी प्रतीक है। प्रसन्न होओ, क्योंकि दिन भी हमारे ही लिए प्रसन्न होते हैं। फिर भी मेरी आत्मा कहती है कि तुम्हारा हृदय आशंकाओं से भरा हुआ है, और जानती हो, प्रेम-व्यवहार में शंका करना अपराध है।
“आने वाले दिनों में क्या तुम इन विशाल मैदानों की रानी बनना चाहोगी, जिसे चांद की चन्द्रिका ज्योतिर्मय कर देती है और इस महल की महारानी बनना पसन्द करोगी, जो महाराजाओं के राज्य-प्रासाद की भांति है? मेरे सुन्दर घोड़े तुम्हें आनन्द-विलास के स्थानों पर ले जायेंगे और मेरे रथ तुम्हें मनोहर जगहों और नृत्यालयों में पहुंचा आयेंगे।
“मुस्कराओ प्रेयसी! जैसे मेरे कोषों में सुवर्ण मुस्कराता है। मेरी ओर देखो, जैसे मेरे पिता के अनमोल रत्न मझे देखते रहते हैं। मेरी ओर ध्यान दो, मेरी प्रिये! क्योंकि मेरा हृदय केवल तुम्हारे सामने अपने गुप्त रहस्यों को खोलना चाहता है। हमारे सामने आनन्द का एक वर्ष पड़ा है-एक वर्ष, जो हम स्वर्ण मुद्राओं के साथ नील नदी के महलों तथा लेबनान के देवदारों की छांह में बिता आयंगे। तुम राजाओं और प्रतिष्ठित पुरुषों की पुत्रियों से मिलोगी और वे लोग तुम्हारे वस्त्र तथा शृंगार से ईर्ष्या करेंगी। मैं तुम्हें वह सब कुछ दूंगा। क्या इन सबके लिए तुम्हारी कृपा-दृष्टि नहीं प्राप्त होगी? आह! तुम्हारी मुस्कान कितनी मधुर है! यही तो मेरे भाग्य की मुस्कान है।”
कुछ समय पश्चात् वे लोग वहां से मन्द गति से अपने पैरों तले सुकुमार पुष्पों को कुचलते हुए ऐसे चले, मानो धनी के पैर निर्धन के हृदय को कुचलते जा रहे हैं। इस प्रकार वे मेरी आंखों से ओझल हो गये, और मैं प्रेम-व्यवहार में धन की स्थिति पर सोचता रह गया। मैंने धन के बारे में सोचा, जो मनुष्य की समस्त दुष्टताओं का आदि-कारण हैं और मैंने प्रेम के बारे में सोचा, जो प्रकाश और हर्ष का स्रोत है।
मैं विचारों की दुनिया में भटकता रहा। तब एकाएक मेरी दृष्टि दो आकृतियों पर पड़ी, जो मेरे सामने से गुजर कर घास पर जम गई। वे थे एक युवक और एक सुन्दरी, जो मैदान के बीच एक कोने में बसी किसानों की झोपड़ियों में से आये थे।
कुछ क्षण की चुप्पी के बाद, जो अखर-सी रही थी, मैंने आहों के साथ ये शब्द घायल होंठों से निकलते हुए सुने : “अपने आंसुओं को पोंछ लो, मेरी प्रिये, क्योंकि प्रेम, जिसने हमारी आंखें खोल दी और हमें अपना गलाम बना लिया है, हमें धैर्य और सहनशीलता की बरकतें प्रदान करेगा। अपने आंसुओं को पोंछ डालो और धीरज धरो, क्योंकि हमने प्रेम की यादगार स्थापित कर ली है और उसी प्रेम के लिए हम निर्धनता की यातनाएं, दर्भाग्य, कड़वाहट और विदाई का कष्ट सहेंगे।”
“मैं समय से तब तक सन्तुष्ट नहीं होऊंगा, जब तक कि उसमें से ऐसा खजाना संचित न कर लं, जो तुम्हारे हाथों द्वारा ग्रहण करने योग्य हो। प्रेम, जो ईश्वर है, हमारी इन आहों और आंसुओं की भेंट अवश्य ही स्वीकार करेगा, और उसके लिए हमें उचित प्रतिफल भी देगा। तो अब विदा दो मेरी प्रिये, क्योंकि अब मैं चलता हूं, चन्द्रमा डूबने लगा है।”
मैंने एक कोमल आवाज सुनी, जिसमें कोई सिसकियां ले रहा था। वह एक अविवाहित सुन्दरी की आवाज थी, जिसमें व्याप्त था प्रेम का दर्द, विरह-व्यथा और बह रहा था धैर्य की मिठास!
“विदा प्रियतम!”
वे बिछुड़ गये और मैं न जाने कब तक उस वृक्ष के नीचे ही बैठा रहा। फिर दयालुता की उंगलियां मुझे खींच ले गईं और इस अद्भुत सृष्टि के रहस्यों ने मुझे खिन्न कर दिया।
उस समय मैंने प्रकृति की ओर देखा, जो गहरी निद्रा में लीन थी। तब मैंने सोचा तो एक ऐसी वस्तु को पाया, जो स्वतन्त्र और अनन्त है-एक ऐसी वस्तु, जो स्वर्ण के बदले भी नहीं खरीदी जा सकती। मैंने एक ऐसी वस्तु को पा लिया, जिस पर शरद के आंसुओं का कोई प्रभाव नहीं पड़ता और निर्धनता और कष्ट जिसे समाप्त नहीं कर सकते-एक ऐसी वस्तु, जो बसन्त में फूलती है और ग्रीष्म में फल देती है। वहां मैंने पाया ‘प्रेम’।