सामने संध्या से धूसरित जल की एक चादर बिछी है. उस के बाद बालू की बेला है, उस में अठखेलियां कर के लहरों ने सीढ़ी बना दी है.
कौतुक यह है कि उस पर भी हरीहरी दूब जम गई है. उस बालू की सीढ़ी की ऊपरी तह पर जाने कब से एक शिला पड़ी है. कई वर्षाओं ने उसे अपने पेट में पचाना चाहा, पर वह कठोर शिला गल न सकी, फिर भी निकल ही आती थी.
नंदलाल उसे अपने शैशव से ही देखता था. छोटी सी नदी, जो उस के गांव से सट कर बहती थी, उसी के किनारे वह अपनी सितारी ले कर पश्चिम की धूसर आभा में नित्य जा कर बैठ जाता. जिस रात को चांदनी निकल आती, उस में देर तक अंधेरी रात के प्रदोष में जब तक अंधकार नहीं हो जाता था, बैठ कर सितारी बजाता अपनी टपरियों (झोंपड़ी) में चला जाता था.
नंदलाल अंधेरे में डरता न था. किंतु चंद्रिका में देर तक किसी अस्पष्ट छाया को देख सकता था. इसलिए, आज भी उसी शिला पर वह मूर्ति बैठी है. गैरिक वसन की आभा सांध्य सूर्य से रंजित नभ से होड़ कर रही है. दोचार लटें इधरउधर मांसल अंश (कंधों) पर पवन के साथ खेल रही हैं.
नदी के किनारे प्रायः पवन का बसेरा रहता है, इसी से यह सुविधा है. जब से शैशव सहचरी नलिनी से नंदलाल का वियोग हुआ है, वह अपनी सितारी से ही मन बहलाता है, सो भी एकांत में; क्योंकि नलिनी से भी वह किसी के सामने मिलने पर सुख नहीं पाता था. किंतु हाय रे सुख! उत्तेजनामय आनंद को अनुभव करने के लिए एक साक्षी भी चाहिए.
बिना किसी दूसरे को अपना सुख दिखाए हृदय भलीभांति से गर्व का अनुभव नहीं कर पाता. चंद्र किरण, नदी तरंग, मलय हिल्लोल, कुसुम सुरभि और रसाल वृक्ष के साथ ही नंदलाल को यह भी विश्वास था कि उस पार का योगी भी कभीकभी उस सितारी की मीड़ से मरोड़ खाता है. लटें उस के कपोल पर ताल देने लगती हैं.
चांदनी बिखरी थी. आज अपनी सितारी के साथ नंदलाल भी गाने लगा था. वह प्रणय संगीत था-भावुकता और काल्पनिक प्रेम का संभार बड़े वेग से उच्छ्वसित हुआ. अंत:करण से दबी हुई तरलवृत्ति, जहां विस्मृत स्वप्न के समान हलका प्रकाश देती थी, आज न जाने क्यों गैरिक निर्झर की तरह उबल पड़ी. जो वस्तु आज तक मैत्री का सुख चिह्न थी-जो सरल हृदय का उपहार थी-जो उदारता की कृतज्ञता थी – उस ने ज्वाला, लालसापूर्ण प्रेम का रूप धारण किया. संगीत चलने लगा.
“अरे कौन है…मुझे बचाओ…आह…”, पवन ने उपयुक्त दूत की तरह यह संदेश नंदलाल के कानों तक पहुंचाया. वह व्याकुल हो कर सितारी छोड़ कर दौड़ा. नदी में फांद पड़ा. उस के कानों में नलिनी का सा स्वर सुनाई पड़ा. नदी छोटी थी-खरस्रोता थी.
नंदलाल हाथ मारता हुआ लहरों को चीर रहा था. उस के बाहुपाश में एक सुकुमार शरीर आ गया.
चंद्रकिरणों और लहरियों को बातचीत करने का एक आधार मिला. लहरी कहने लगी, “अभागे! तू इस दुखिया नलिनी को बचाने क्यों आया, इस ने तो आज अपने समस्त दुखों का अंत कर दिया था.”
किरण-“क्यों जी, तुम लोगों ने नंदलाल को बहुत दिनों तक बीच में बहा कर हल्लागुल्ला मचा कर, बचाया था.”
लहरी-“और तुम्हीं तो प्रकाश डाल कर उसे सचेत कराती रही हो.”
किरण-“आज तक उस बेचारे को अंधेरे में रखा था. केवल आलोक की कल्पना कर के वह अपने आलेख्य पट को उद्भासित कर लेता था. उस पार का योगी सुदूरवर्ती परदेशी की रम्य स्मृति को शांत तपोवन का दृश्य था.”
लहरी-“पगली! सुख स्वप्न के सदृश्य और आशा में आनंद के समान मैं बीच में पड़ीपड़ी उस के सरल नेह का बहुत दिनों तक संचय करती रही-आंतरिक आकर्षणपूर्ण सम्मिलन होने पर भी, वासना रहित निष्काम सौंदर्यमय व्यवधान बन कर मैं दोनों के बीच बहती थी; किंतु नंदलाल इतने में संतुष्ट न हो सका. उछलकूद कर हाथ चला कर मुझे भी गंदला कर दिया. उसे बहने, डूबने और उतराने का आवेश बढ़ गया था.”
किरण-“हूं, तब डूबें बहें.”
पवन चुपचाप इन बातों को सुन कर नदी के बहाव की ओर सर्राटा मार कर संदेशा कहने को भगा. किंतु वे बहुत दूर निकल गए थे. सितारी मूर्च्छना में पड़ी रही.