रात हो चुकी थी और अंधेरे ने सारे नगर को मानो निगल लिया था; पर महलों, झोंपड़ियों और दुकानों में रोशनियां जगमगा रही थीं। हजारों लोग सुन्दर-सुन्दर पोशाकें पहने सड़कों पर जमघट लगाए हुए थे। सभी के चेहरों पर प्रसन्नता और सन्तोष की झलक दिखती थी।
भीड़ और कोलाहल को त्यागकर एक ओर को मैं अकेला घूमने लगा और उस महामानव का स्मरण करने लगा, जिसकी महत्ता में वे उत्सव मना रहे थे। उस देवात्मा का ध्यान करने लगा, जिसने एक निर्धन घर में जन्म लेकर धर्ममय जीवन व्यतीत किया और संसार की भलाई में अपनी बलि दी।
मैं उस जलती हुई मशाल के ध्यान में रत था, जिसे सीरिया के इस छोटे से गांव में उस ‘पुण्यात्मा’ ने जलाया था उस पुण्यात्मा ने, जो हर काल, हर समय में मंडराती रहती है और एक के बाद दूसरी सभ्यता में से गुजरती है और उसे अपनी सत्यता से प्रभावित करती रहती है। ज्योंहि मैं सार्वजनिक उद्यान में पहुंचा और जंग खाई हुई एक बेंच पर बैठकर नंगे पेड़ों के उस पार भीड़-भरी सड़कों की ओर देखने लगा तो खुशी के गीत और राग सुनाई पड़ने लगे।
एक घंटे की गहरी चिन्ता के बाद मैंने अपनी बगल में झांका तो वहां एक मनुष्य को बैठा पाकर बड़ा ही विस्मित हुआ। वह हाथ में तिनका लिये पृथ्वी पर अस्पष्ट से चित्र अंकित कर रहा था। मैं डर-सा गया, क्योंकि मैंने उसे आते हुए नहीं देखा था और न उसके आने की आहट ही सुनी थी; परन्तु तभी मैंने अपने मन में कहा, “यह भी कोई, मेरी तरह ही, एकान्तवासी है।” भली-भांति देखने के उपरान्त मुझे ज्ञात हुआ कि लम्बे बाल और पुरानी वेश-भूषा में होने पर भी वह एक योग्य, प्रतिभाशाली मनुष्य है।
ऐसा जान पड़ा कि उसने मेरे हृदय के विचार ताड़ लिये, क्योंकि एक गहरे एवं शान्त स्वर में उसने कहा, “आशीर्वाद मेरे बेटे!”
“नमस्कार” श्रद्धापूर्वक मैंने उत्तर दिया और तब वह फिर से अपने चित्रों में तल्लीन हो गया; किन्तु उसके स्वर की मीठी और अदभत आवाज तब भी मेरे कानों में गूंज रही थी।
मैंने उससे पूछा, “क्या आप इस नगर में एक अजनबी हैं?”
“हां! प्रत्येक नगर में मैं एक अजनबी हूं।”
सान्त्वना के स्वर में मैंने कहा, “खुशी के इन दिनों में एक परदेसी को यह भुला देना चाहिए कि वह कहीं बाहर का है, क्योंकि आजकल सभी लोग सहानुभूति और दयालुता से परिपूर्ण रहते हैं।”
उसने क्षीण स्वर में उत्तर दिया, “मैं न दिनों में और दिनों से अधिक अजनबी हो जाता हूं।”
इतना कहकर वह निर्मल आकाश की ओर देखने लगा। उसके नेत्र सितारों को घूरने लगे और उसके होंठ कांपने लगे, मानो सितारों की उस दुनिया में उसे कोई दूर देश की छाया दिखाई पड़ रही हो। उसके अनोखे उत्तर ने मेरी उत्सुकता को और बढ़ा दिया। मैंने कहा, “यह वर्ष का वह समय है, जब मनुष्य दूसरों पर दयालु होते हैं, धनी निर्धन का ध्यान रखते और बलवान -दुर्बल के प्रगति सहानुभूति प्रकट करते हैं।”
उसने उत्तर दिया, “हां, धनी की निर्धन पर यह क्षणिक दया बड़ी ही तीखी होती है और बलवान की निर्बल के प्रति यह सहानुभूति कुछ नहीं, केवल उच्चता की स्मृति मात्र है।”
मैंने निश्चयपूर्वक कहा, “आप ठीक कहते हैं, किन्तु बलहीन निर्धन यह कभी जानने की चेष्टा नहीं करता कि धनी के हृदय में कैसी भावनाएं हैं और भूखा यह कभी नहीं सोचता कि रोटी का वह टुकड़ा, जिसकी लालसा उसके मन में लगी हुई है, किस प्रकार गूंथकर पकाया गया है।”
तब उसने उत्तर दिया, “जो सहानुभूति या दान पाता है वह तो मूर्ख है ही, किन्तु जो देने वाला है, उस पर यह दायित्व है कि भ्रातृप्रेम और मित्रता की भावना से दे, अपने बढ़प्पन को जताकर नहीं।”
मैं उसकी बुद्धिमत्ता से चकित रह गया और एक बार फिर उसके पुराने रूप और विचित्र पहनावे को ध्यान से देखने लगा। तब सोच-समझ कर मैंने कहा, “ऐसा ज्ञात होता । है कि आपको सहायता की आवश्यकता है। क्या आप मेरे कुछ सिक्के स्वीकार करेंगे?”
एक व्यथित मुस्कान के साथ उसने उत्तर दिया, “हां, मुझे सहायता की बड़ी जरूरत । है, किन्तु सोने और चांदी की नहीं।” हैरान होकर मैंने पूछा, “तब आपको किस वस्तु की आवश्यकता है?” “मुझे स्थान चाहिए, जहां मैं अपने मस्तिष्क और अपने विचारों को विश्राम दे सकूँ।”
“कृपा करके यह दो दीनार स्वीकार कर किसी सराय में ठहरने का प्रबन्ध कर लीजिये।” मैंने आग्रह किया। उसने दुखित स्वर में कहा, “मैं हर सराय में गया हूं, मैंने हरएक का दरवाजा । खटखटाया; किन्तु व्यर्थ! मैं हर भोजनालय में गया; किन्तु किसी ने मेरी सहायता नहीं की। मैं पीड़ित हूं, भूखा नहीं; मैं निराश हूं, थका हुआ नहीं। मुझे सिर छिपाने का नहीं, मनुष्यता का आश्रय चाहिए।”
मैंने मन-ही-मन सोचा, “कैसा आदमी है, कभी दार्शनिक की तरह बातें करता है तो कभी पागल की तरह।”
जैसे ही मैं ये शब्द अपनी आत्मा की गहराइयों में गुनगुना रहा था, वह मेरी ओर घूरने लगा और कंठ को कुछ धीमा कर क्षुब्ध स्वर में बोला, “हां! मैं पागल हूं, परन्तु एक पागल भी अपने को बिना आश्रय के एक अजनबी और बिना अन्न के एक भूखा ही समझेगा, क्योंकि मनुष्य का हृदय तो एक शून्य मात्र है।”
मैंने क्षमा मांगते हुए कहा, “मुझे अपनी मूर्खता पर दुःख है। क्या आप मेरा आतिथ्य स्वीकार कर मेरे घर विश्राम करेंगे?”
“मैंने तुम्हारा ही नहीं, प्रत्येक का द्वार खटखटाया है, किन्तु कोई उत्तर न मिला।” उसने तीखे स्वर में कहा। अब मुझे पूर्ण विश्वास हो गया कि वह वास्तव में पागल है। मैंने अनुरोधपूर्वक कहा, “चलो, अब घर चलें।”
अपने सिर को धीरे से ऊपर उठाते हुए उसने कहा, “यदि तुम मुझे पहचानते होते । तो कभी अपने घर चलने को निमन्त्रित न करते।”
“आप कौन हैं?” मैंने डरते-डरते धीमे स्वर में पूछा।
सागर की गर्जन के समान तीखी चिंघाड़ती हुई आवाज में उसने कहा, “मैं वह क्रान्ति हूं, जो उसका निर्माण करती है, जिसे राष्ट्र नष्ट कर देते हैं। मैं वह आंधी हूं, जो सदियों से जमाये हुए पेड़ों की जड़ों को उखाड़ फेंकती है। मैं वह प्राणी हूं, जो इस संसार में शान्ति नहीं, युद्ध फैलाने आता है, क्योंकि मानव-हृदय दुखों से ही सन्तुष्ट होता है।”
और कपोलों के नीचे अश्रु-धारा बहाता हुआ वह खड़ा हो गया। एक धीमे प्रकाश की ज्योति उसके चारों ओर फैल गई और उसने अपने हाथ आगे फैला दिये। तब मैंने देखा ‘कि उसकी हथेलियों पर कीलों के चिन्ह थे। मैं उनके चरणों में गिड़गिड़ा कर गिर पड़ा और चीख-चीख कर पुकारने लगा, “ओ नेजेरथ के ईसा मसीह!”
और वे मानसिक उत्तेजना में कहते ही गये, “लोग मेरी स्मृति में मेरे नाम के पीछे सदियों से चली आई प्रथाओं को मना रहे हैं और मैं हूं कि एक अजनबी बना हूं। मैं पूर्व से पश्चिम तक इस पृथ्वी पर घूमता फिरा हूं; किन्तु मुझे किसी ने नहीं पहचाना। लोमड़ी का भी अपना बिल होता है और आकाश की चिड़िया का भी अपना घोंसला, किन्तु महामानव की सन्तान को अपने मस्तिष्क को विश्राम देने के लिए कहीं भी स्थान नहीं है।”
उसी क्षण मैंने अपनी आंखें खोली, गरदन ऊपर उठाई और अपने चारों ओर देखा; किन्तु वहां धुएं के अतिरिक्त कुछ भी न पाया और मुझे केवल रात्रि के अन्धकार की खामोशी में क्षितिज के पार की गहराइयों में से आती हुई एक कांपती आवाज सुनाई पड़ी।
अपने आपको एक बार फिर संभाल कर मैं दूर गाते हुए जमघटों को देखने लगा। तब मेरे अन्तःकरण ने कहा, “वही शक्ति जो हृदय को दुःख से बचाती है, उसे अपनी आकांक्षाओं की इच्छित सीमा तक फैलने से भी रोकती है। स्वर का गीत मीठा है सही, किन्तु हृदय का गीत ही तो ईश्वर की सच्ची आवाज है।”