अघोरी का मोह

“आज तो भैया, मूंग की बरफी खाने को जी नहीं चाहता, यह साग तो बड़ा ही चटकीला है. मैं तो…”

“नहीं नहीं जगन्नाथ, उसे दो बरफी तो जरूर ही दे दो.”

“न न न. क्या करते हो, मैं गंगा जी में फेंक दूंगा.”

“लो, तब मैं तुम्हीं को उलटे देता हूं.” ललित ने कह कर किशोर की गरदन पकड़ ली. दीनता से भोली और प्रेम भरी आंखों से चंद्रमा ज्योति में किशोर ने ललित की ओर देखा.

ललित ने दो बरफी उस के खुले मुख में डाल दी.

उस ने भरे हुए मुख से कहा, “भैया, अगर ज्यादा खा कर मैं बीमार हो गया तो?”

ललित ने उस के बर्फ के समान गालों पर चपत लगा कर कहा, “तो मैं सुधाबिंदु का नाम गरलधारा रख दूंगा. उस के एक बूंद में सत्रह बरफी पचाने की ताकत है. निर्भय हो कर भोजन और भजन करना चाहिए.”

शरद की नदी अपने कगारों में दब कर चली जा रही है. छोटा सा बजरा भी उसी में अपनी इच्छा से बहता हुआ जा रहा है, कोई रोकटोक नहीं है. चांदनी निरख रही थी, नाव की सैर करने के लिए ललित अपने अतिथि किशोर के साथ चला आया है. दोनों में पवित्र सौहार्द्र है.

जाह्नवी की धवलता आ दोनों की स्वच्छ हंसी में चंद्रिका के साथ मिल कर कुतूहलपूर्ण जगत को देखने के लिए आह्वान कर रही है. धनी संतान ललित अपने वैभव में भी किशोर के साथ दीनता अनुभव करने का बड़ा उत्सुक है. वह सानंद अपनी दुर्बलताओं को, अपने अभाव को, अपनी करुणा को, उस किशोर बालक से व्यक्त कर रहा है.

इस में उसे सुख भी है, क्योंकि वह एक न समझने वाले हिरन के समान बड़ीबड़ी भोली आंखों से देखते हुए केवल सुन लेने वाले व्यक्ति से अपनी समस्त कथा कह कर अपना बोझा हलका कर लेता है. और उस का दुख कोई समझने वाला व्यक्ति न सुन सका, जिस से उसे लज्जित होना पड़ता, यह उसे बड़ा सुयोग मिला है.

ललित को कौन दुख है? उस की आत्मा क्यों इतनी गंभीर है? यह कोई नहीं जानता क्योंकि उसे सब वस्तु की पूर्णता है, जितनी संसार मैं साधारणतः चाहिए; फिर भी उस की नील नीरद माला सी गंभीर मुखाकृति में कभी कभी उदासीनता बिजली की तरह चमक जाती है.

ललित और किशोर बातें करतेकरते हंसते हंसते अब थक गए हैं. विनोद के बाद अवसान का आगमन हुआ. पान चबातेचबाते ललित ने कहा, “चलो जी, अब घर की ओर.”

माझियों ने डांड़ लगाना आरंभ किया. किशोर ने कहा, “भैया, कल दिन में इधर देखने की बड़ी इच्छा है. बोलो, कल आओगे?”

ललित चुप था. किशोर ने कान में चिल्ला कर कहा, “भैया! कल आओगे न?” ललित ने चुप्पी साध ली. किशोर ने फिर कहा, “बोलो भैया, नहीं तो मैं तुम्हारा पैर दबाने लगूंगा.”

ललित पैर छूने से घबरा कर बोला, “अच्छा, तुम कहो कि हम को किसी दिन अपनी सखी रोटी खिलाओगे?…”

किशोर ने कहा, “मैं तुम को खीरमोहन, दिलखुश…” ललित ने कहा, “न-न-न. …मैं तुम्हारे हाथ से सूखी रोटी खाऊंगा-बोलो, स्वीकार है? नहीं तो मैं कल नहीं आऊंगा.”

किशोर ने धीरे से स्वीकार कर लिया. ललित ने चंद्रमा की ओर देख कर आंखें बंद कर ली. बरौनियों की जाली से इंदु की किरणें घुस कर फिर कोर में से मोती बनबन कर निकल भागने लगी. यह कैसी लीला थी.

25 वर्ष के बाद….

कोई उसे अघोरी कहते हैं, कोई योगी. मुर्दा खाते हुए उसे किसी ने नहीं देखा है, किंतु खोपड़ियों से खेलते हुए, उस के जोड़ की लिपियों को पढ़ते हुए, फिर हंसते हुए, कई व्यक्तियों ने देखा है.

गांव की स्त्रियां जब नहाने आती हैं, तब कुछ रोटी, दूध, बचा हुआ चावल लेती आती हैं. पंचवट के बीच में झोंपड़ी में रख जाती हैं. कोई उस से यह भी नहीं पूछता कि वह खाता है या नहीं.

किसी स्त्री के पूछने पर, “बाबा, आज कछ खाओगे,” अघोरी बालकों की सी सफेद आंखों से देख कर बोल उठता, “मां.” .

युवतियां लजा जातीं. वृद्धाएं करुणा से गद्गद हो जाती और बालिकाएं खिलखिला कर हंस पड़ती, तब अघोरी गंगा के किनारे उतर कर चला जाता और तीर पर से गंगा के साथ दौड़ लगाते हुए कोसों चला जाता, तब लोग उसे पागल कहते थे. किंतु कभीकभी संध्या को संतरे के रंग से जब जाह्नवी का जल रंग जाता है और पूरे नगर की अट्टालिकाओं का प्रतिबिंब छाया चित्र का दृश्य बनाने लगता, तब भावविभोर हो कर कल्पनाशील भावुक की तरह वही पागल निर्निमेष दृष्टि से प्रकृति के अदृश्य हाथों से बनाए हुए कोमल कारीगरी के कमनीय कुसुम को नन्हे से फूल को-बिना तोड़े हुए उन्हीं घासों में हिला कर छोड़ देता और स्नेह से उसी ओर देखने लगता, जैसे वह उस फूल से कोई संदेश सुन रहा हो.

शीतकाल है. मध्याह्न है. सवेरे से अच्छा कुहरा पड़ चुका है. नौ बजने के बाद सूर्य का उदय हुआ है. छोटा सा बजरा अपनी मस्तानी चाल से जाह्नवी के शीतल जल में संतरण (तैर ) कर रहा है. बजरे की छत पर तकिए के सहारे कई बच्चे और स्त्रीपुरुष बैठे हुए जल विहार कर रहे हैं.

कमला ने कहा, “भोजन कर लीजिए, समय हो गया है.” किशोर ने कहा, “बच्चों को खिला दो, अभी और दूर चलने पर हम खाएंगे.”

बजरा जल से कल्लोल करता हुआ चला जा रहा है. किशोर शीतकाल के सूर्य की किरणों से चमकती हुई जल लहरियों को उदासीन अथवा स्थिर दृष्टि से देखता . हुआ न जाने कब की और कहां की बातें सोच रहा है. लहरें क्यों उठती हैं और विलीन होती हैं, बुदबुद और जल राशि का क्या संबंध है?

मानव जीवन बुदबुद है कि तरंग? बुदबुद है, तो विलीन हो कर क्यों प्रकट होता है? मलिन अंश फेन कुछ जलबिंदु से मिल कर बुदबुद का अस्तित्व क्यों बना देता है? क्या वासना और शरीर का भी यही संबंध है? वासना की शक्ति? कहांकहां किस रूप में अपनी इच्छा चरितार्थ करती हुई जीवन को अमृत गरल का संगम बनाती हुई अनंत काल तक दौड़ लगाएगी? कभी अवसान होगा, कभी अनंत जल राशि में विलीन हो कर वह अपनी अखंड समाधि लेगी?…हैं, क्या सोचने लगा? व्यर्थ की चिंता. उहं.”

नवल ने कहा, “बाबा, ऊपर देखो. उस वृक्ष की जड़ें कैसी अद्भुत फैली हुई

किशोर ने चौंक कर देखा. वह जीर्ण वृक्ष, कुछ अनोखा था. और भी कई वृक्ष ऊपर के कगारे को उसी तरह घेरे हुए हैं, यहां अघोरी की पंचवटी है.

किशोर ने कहा, “नाव रोक दो. हम यहीं ऊपर चल कर ठहरेंगे. वहीं जलपान करेंगे.”

थोड़ी देर में बच्चों के साथ किशोर और कमला पंचवटी के कगारे पर चढ़ने लगे.

सब लोग खापी चुके. अब विश्राम कर के नाव की ओर पलटने की तैयारी है. मलिन अंग, किंतु पवित्रता की चमक, मुख पर रुक्षकेश, कौपीनघारी एक व्यक्ति आ कर उन लोगों के सामने खड़ा हो गया.

“मुझे कुछ खाने को दो.” दूर खड़ा हुआ गांव का एक बालक उसे मांगते देख कर चकित हो गया. वह बोला, “बाबूजी, यह पंचवटी के अघोरी हैं.” तीर पर से गंगा के साथ दौड़ लगाते हुए कोसों चला जाता, तब लोग उसे पागल कहते थे. किंतु कभीकभी संध्या को संतरे के रंग से जब जाह्नवी का जल रंग जाता है और पूरे नगर की अट्टालिकाओं का प्रतिबिंब छाया चित्र का दृश्य बनाने लगता, तब भावविभोर हो कर कल्पनाशील भावुक की तरह वही पागल निर्निमेष दृष्टि से प्रकृति के अदृश्य हाथों से बनाए हुए कोमल कारीगरी के कमनीय कुसुम को नन्हे से फूल को बिना तोड़े हुए उन्हीं घासों में हिला कर छोड़ देता और स्नेह से उसी ओर देखने लगता, जैसे वह उस फूल से कोई संदेश सुन रहा हो.

शीतकाल है. मध्याह्न है. सवेरे से अच्छा कुहरा पड़ चुका है. नौ बजने के बाद सूर्य का उदय हुआ है. छोटा सा बजरा अपनी मस्तानी चाल से जाह्नवी के शीतल जल में संतरण (तैर ) कर रहा है. बजरे की छत पर तकिए के सहारे कई बच्चे और स्त्रीपुरुष बैठे हुए जल विहार कर रहे हैं.

कमला ने कहा, “भोजन कर लीजिए, समय हो गया है.” किशोर ने कहा, “बच्चों को खिला दो, अभी और दूर चलने पर हम खाएंगे.” .

बजरा जल से कल्लोल करता हुआ चला जा रहा है. किशोर शीतकाल के सूर्य की किरणों से चमकती हुई जल लहरियों को उदासीन अथवा स्थिर दृष्टि से देखता . हुआ न जाने कब की और कहां की बातें सोच रहा है. लहरें क्यों उठती हैं और विलीन होती हैं, बुदबुद और जल राशि का क्या संबंध है?

मानव जीवन बुदबुद है कि तरंग? बुदबुद है, तो विलीन हो कर क्यों प्रकट होता है? मलिन अंश फेन कुछ जलबिंदु से मिल कर बुदबुद का अस्तित्व क्यों बना देता है? क्या वासना और शरीर का भी यही संबंध है? वासना की शक्ति? कहांकहां किस रूप में अपनी इच्छा चरितार्थ करती हुई जीवन को अमृत गरल का संगम बनाती हुई अनंत काल तक दौड़ लगाएगी? कभी अवसान होगा, कभी अनंत जल राशि में विलीन हो कर वह अपनी अखंड समाधि लेगी?…हैं, क्या सोचने लगा? व्यर्थ की चिंता. उहं.”

नवल ने कहा, “बाबा, ऊपर देखो. उस वृक्ष की जड़ें कैसी अद्भुत फैली हुई हैं.”

किशोर ने चौंक कर देखा. वह जीर्ण वृक्ष, कुछ अनोखा था. और भी कई वृक्ष ऊपर के कगारे को उसी तरह घेरे हुए हैं, यहां अघोरी की पंचवटी है.

किशोर ने कहा, “नाव रोक दो. हम यहीं ऊपर चल कर ठहरेंगे. वहीं जलपान करेंगे.”

थोड़ी देर में बच्चों के साथ किशोर और कमला पंचवटी के कगारे पर चढ़ने लगे.

सब लोग खापी चुके. अब विश्राम कर के नाव की ओर पलटने की तैयारी है. मलिन अंग, किंतु पवित्रता की चमक, मुख पर रुक्षकेश, कौपीनघारी एक व्यक्ति आ कर उन लोगों के सामने खड़ा हो गया.

“मुझे कुछ खाने को दो.” दूर खड़ा हुआ गांव का एक बालक उसे मांगते देख कर चकित हो गया. वह बोला, “बाबूजी, यह पंचवटी के अघोरी हैं.” किशोर ने एक बार उस की ओर देखा, फिर कमला से कहा-कुछ बचा हो, तो इसे दे दो.

कमला ने देखा, तो कुछ परांवठे बचे थे. उस ने निकाल कर दे दिया. किशोर ने कहा, “और कुछ नहीं है?” उस ने कहा, “नहीं.”

अघोरी उस सूखे परांवठे को ले कर हंसने लगा. बोला, “हम को और कुछ न चाहिए.” फिर एक खेलते हुए बच्चे को गोद में उठा कर चूमने लगा.

किशोर को बुरा लगा. उस ने कहा, “उसे छोड़ दो, तुम चले जाओ.”

अघोरी ने हताश दृष्टि से एक बार किशोर की ओर देखा और बच्चे को रख (छोड़) दिया. उस की आंखें भरी थीं, किशोर. को कुतूहल हुआ. उस ने कुछ पूछना चाहा, किंतु वह अघोरी धीरेधीरे चला गया. किशोर कुछ अव्यवस्थित हो गए. वह शीघ्र नाव पर सब को ले कर चले आए.

नाव नगरी की ओर चली. किंतु किशोर का हृदय भारी हो गया था. वह बहुत विचारते थे, कोई बात स्मरण करना चाहते थे, किंतु वह ध्यान नहीं आती थी. उन के हृदय में कोई भूली हुई बात चिकोटी काटती थी, किंतु वह विवश थे. उन्हें स्मरण नहीं होता था. मातृ स्नेह से भरी हुई कमला ने सोचा कि हमारे बच्चों को देख कर अघोरी को मोह हो गया.

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